Book Title: Jain Nibandh Ratnavali 02
Author(s): Milapchand Katariya
Publisher: Bharatiya Digambar Jain Sahitya

View full book text
Previous | Next

Page 656
________________ ६५८ ] [ ★ जैन निवन्ध रत्नावली भाग २ (४) दोष के होने मे उतनी हानि नही है जितनी दोप को दोष ही नहीं मानने मे है। इससे भी ज्यादा हानि दोष को निर्दोष बताने के लिये शास्त्र विपर्यास करने में है किन्तु परिताप की बात है कि - यही सव कुप्रयास आज कुछ पडित आदि कर रहे हैं । लवण रहित - मनूणा आहार हो आजकल साधु लेते हैं यह मी स्पष्ट उद्दिष्ट दोष को लिए हुए है क्योंकि ऐसा आहार श्रावक मुनि के लिए ही बताते हैं श्रावक कोई लवणरहित माहार खाते नही । शास्त्रों में तो अनेक जगह लवणयुक्त आहार करना ही साधुओ के लिए बताया है लिखा है कि- लवणादि छहो रसो से युक्त आहार कर सकते हैं, तृष्णा परिषह मे बताया है कि-अधिक लवण आहार मे हो जाने से अगर प्यास भी बढे तो साधु को उसे सहन करना चाहिए यह तृष्णा परिषह तय है । अठपस्या घी भी उद्दिष्ट दोष का उत्पादक होगया है । उसीतरह शहरी सर्वत्र नल का पानी है, कुए असुविधा कठिनता लव्ध हैं अतः यह भी समस्याजनक होगया है । मर्यादित शुद्ध दूध दही भी इसी स्थिति को लिए हैं । (अठपहस्या घी, कुए का जल, शुद्ध दूध दही आदि का अगर श्रावक भी उपयोग करे तो फिर भी कुछ उद्दिष्ट दोष से बचना हो सकता है सिर्फ मुनि जितना ही प्रवन्ध करना तो मुनि निमित्त ही होने से उद्दिष्ट दूषित है ।

Loading...

Page Navigation
1 ... 654 655 656 657 658 659 660 661 662 663 664 665 666 667 668 669 670 671 672 673 674 675 676 677 678 679 680 681 682 683 684 685