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[ ★ जैन निबन्ध रत्नावली भाग २
जी ने जो मध्याह्न या उसके कुछ आगे-पीछे का समय लिखा है वह प्रोपधोपवासी के आहार का लिखा है, अतिथि के आहार का नही लिखा है ।" तो इसका उत्तर जरा तटस्थ होकर यह समझिये कि आप मुनि का भोजनकाल दस बजे करीब का मानते है, उसमे और मध्याह्न काल मे दो घण्टे का अन्तर पडता है और प्रोषधोपवासी का धारणे- पारणे के दिन भोजन काल मध्याह्न का है, इसमे तो किसीको विवाद नही है । अब जरा सोचने की बात है कि मुनि का १० बजे का भोजनकाल शास्त्रकारो को मान्य होता तो वे प्रोषधोपवासी के भोजन के अवसर मे अतिथि दानका कथन ही नही करते । क्योकि दो घण्टा पहिले के कार्य को यहाँ बताने की आवश्यकता ही क्या है ? इससे भली-भाँति यही सिद्ध होता है कि प्रोषधोपवासी और मुनि दोनो का भोजन काल मध्याह्न होने से ही यह लिखा जाता है कि - प्रोपधोपवासी अतिथि को दान देकर फिर आप भोजन करे ।
आपका प्रश्न - मध्याह्न में आहार देने का मतलब है मुनि को बचाखुचा आहार देना । इससे यही समझा जावेगा कि दाता की पात्र में भक्ति नही है ।
उत्तर - जैन मुनि भोजन के लिए चाहे जब बुलाये आते होते और दाता उन्हे मध्याह्न मे बुलाकर जिमाता तव तो वैसा समझा जा सकता था । परन्तु जब शास्त्राज्ञा के अनुसार उनका भोजनकाल ही मध्याह्न है तो इसमे दाता का क्या वश है ? कभी आप तो ऐसे भी कहने लग जावो कि दाता आप तो बैठकर आराम से भोजन करे और मुनिको खड़ा रखकर आहार देवे, इससे दाता की पात्र मे भक्ति नही है । यह सब आपकी