Book Title: Jain Nibandh Ratnavali 02
Author(s): Milapchand Katariya
Publisher: Bharatiya Digambar Jain Sahitya

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Page 650
________________ ६५२ ] ही करता है ।" उत्तर तो हम क्या करे ? यह सब दूषित मार्ग है । शास्त्रो मे तो इसे भी उद्दिष्ट टोप ही माना है । प्रमाण के लिये चारित्र - सार का यह उल्लेख देखिये ★ जैन निवन्ध रत्नावलो भाग २ "उद्दिष्ट विनिवृत्तः स्वोद्दिष्ट पिडोपधिशयन- वसनादविरत. " अर्थ - अपने निमित्त (पात्र के निमित्त) बनाए हुए भोजन, उपधि, शय्या वस्त्रादि का त्याग उद्दिष्ट त्याग प्रतिमा है । इसका अर्थ यह नही कि इस काम में तो उद्दिष्ट दोप निश्चयत, आवेगा ही । यह काम भी उद्दिष्ट दोष से बचकर किया जा सकता है । गृहस्थ के यहा अपने खुद के उपभोग के लिए कपडो के थान पड़े रहते हैं उनमे से फाडकर साडी लगोट चादर दिये जाने मे कोई उद्दिष्ट दोष नही आता है | ये तो सिले हुए भी नही होते है जिससे कि उदिदष्टकी सम्भावना की जा सके । मतलब कि जो कोई उद्दिष्ट को दोष माने और उम दोप को बचाकर पात्र दान करना चाहे तो उसके लिए कई रास्ते निकल सकते हैं । इसमे असम्भव कुछ भी नही है । पात्रदान के अभिलाषी श्रावको को निर्दोष दान करने के साधन जुटाने मे कोई मुश्किल नही है। बशर्ते कि वे दोषो को टालना अनिवार्य समझ ले तो । प्रश्न--आज के वक्त मे कोई मुनि तीर्थयात्रा करने को निकले और रास्ते मे श्रावक लोग उनके साथ चलकर उनकी आहार की व्यवस्था न करे तो मुनियो की तीर्थयात्रा ही नही

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