Book Title: Jain Nibandh Ratnavali 02
Author(s): Milapchand Katariya
Publisher: Bharatiya Digambar Jain Sahitya

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Page 645
________________ उदिप्ट दोप मीमासा ] [ ६४७ अर्थ ही यह है कि जो किसी के भी उद्देश्य से बनाया जावे। समीक्षा धन्य है महाराज आपकी अद्भुत सूझ को । खेद है कि शास्त्रो मे आपकी सूझ से प्रतिकूल लिखा मिलता है । देखियेअमितगति श्रावकाचार का यह पद्य परिकल्प्य सविभागं स्व निमित्त कृताशनौषधा दीनाम् । भोक्तव्य सागाररतिथिवत पालिभि नित्यम् ॥४॥ [अध्या० ६] अर्थ-अतिथि सविभाग व्रत के पालन करने वाले गृहस्थ श्रावकोको अपने खुद के निमित्त बनाये हये भोजन औषधादि मे से सम्यक् विभाग को अतिथि के लिये देकर नित्य भोजन करना चाहिये । स्पष्टत' ऐसी ही पुरुषार्थ सिद्धपाय श्लो० १७४ मे है । एव इसी तरह का कथन प० आशाधरजी ने भी सागारधर्मामृत अध्याय ५ श्लोक ४१-५१ मे किया है। श्लोक-४१ की टीका मे "अतिथि सविभाग" वाश्य की व्याख्या करते हुये वे लिखते हैं कि"अतिथे सम्यक् निर्दोपो विभाग स्वार्थ कृत भक्ताद्य ण दानरूप ।" इसमे भी "दाता अपने खुद के लिये बनाये आहारादि मे से शुद्ध अश अतिथि को देवे।" ऐसा लिखा है। ___ अब चूडीवालजी बता कि हम आपकी बात माने या शास्त्रकारो की ? आपने अपने कथन की पुष्टि मे वीरनन्दि कृत आचारमार का यह प्रमाण दिया है -

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