Book Title: Jain Ling Nirnay Author(s): Publisher: View full book textPage 4
________________ ॥इश्तिहार // ददतु ददतुगालिंगालिमन्तो भवन्तु अहमपि तदभावे गालिदाने समर्थः // जैनी वैष्णव सर्व सज्जन पुरुषों को विदित हो कि जैन शास्त्र के अनुसार जोकि वर्तमान काल में अंगउपांग णादि शास्त्र हैं उनमें जिन मूर्ति का पूजन और मुखपत्ती मुख पर अष्ठ पहर बाधना साधु व श्रावक के वास्ते शास्त्र ने निकले अर्थात् सिद्ध हो जाय सूत्रों के पाठ से तब तो पूजन नहीं करने वाले तो पूजन को अंगिकार करें और मुख पर मुंहपत्ती न बांधे जो यह बात सिद्ध अर्थात् जिन प्रतिमा का पूजन न ठहरेगा और मुख बांधना अष्ट पहर ठहर जायगा तो हम मुख बांधने लगेंगे और जिन प्रतिमा का निषेध करेंगे इस शास्त्रार्थ में इस बमुजिब मध्यस्थ भी होना चाहिये दो तो पंडित जोकि व्याकरण न्याय काव्य कोष आदि के जानने वाले कोषों के बीच में जिनकी विद्वत्ता प्रसिद्ध हो और इसे बमुजिब दो संन्यामी और दो आर्य समाजी क्योंकि वे लोग वेद की रीति से मूर्ती को नहीं मानते हैं और दो पंडित दिगंवरी आमनाके और दो ईसाई जोकि संस्कृत के अच्छे जानने वाले हों ऐसे उपर लिखे बमुजिब मध्यस्थ कपनी विद्वलांस पक्षपात को छोड़कर सूत्र का अर्थ करें स्पष्ट अर्थ को दोनो जने अंगिकार करें और जो उन लोगों का खर्चा पड़े वो हारनेवाला दे अर्थात उस की पक्ष का गृहस्थी देवे और इस कागज की नकल एक सरकार की नकल में दीजाय और और एक नकल प्रति बादियोके पास रहै और एक नकल अपने प.समें रेखा तिथिPage Navigation
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