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कर तथा मुँह पर मुँहपत्ती बंधा कर एवं तेरह पन्थियों ने दया दान में पाप समझा कर कई एक गोत्रों वालों को अपने श्रावक: समझ लिये हैं ।
यदि खरतरों को इन ४४ गोत्रों के नायक बनना हो तो कोई प्रामाणिक प्रमाण जनता के सामने पेश करना चाहिये । क्योंकि अब केवल अन्ध श्रद्धा का जमाना नहीं है कि मात्र खीचडी की माला व मंत्र से जनता को बहका दें और उन्हें भ्रम में डाल कर अपना स्वार्थ संपादन कर लें ?
केवल जिनदत्तसूरि ही क्यों, पर मैं तो यहां तक कह सकता हूँ कि खरतरगच्छ को पैदा हुए करीबन ८०० सौ वर्ष हुए हैं । इतने लम्बे अर्से में भी किसी खरतराचार्य ने एकाध जैन को जैन बना कर नयी जैन जाति की स्थापना नहीं की है।
हाँ—छल प्रपञ्च, झगड़ा, टंटा कर पूर्व बनी हुई जैन जाति -- यों के अन्दर से कई एक लोगों को अपने पक्ष में जरूर बना लिये हैं । नमूना के तौर पर मैं दो चार ऐसे उदाहरण यहां उद्धृत कर देता हूँ ।
( १ ) खरतरगच्छ पट्टावलि में निम्न लिखित उल्लेख मिलता है कि - " एक समय उधरण मंत्री ने नागपुर (नागोर) में जिनमन्दिर बनाया प्रतिष्ठा के लिये अपने कुलगुरु ( उपके रागच्छा चार्य ) को बुलाया पर वह किसी कारणवस मुहुर्त पर नहीं सके । उस हालत में मंत्री की औरत खरतर गच्छ के श्रावक की पुत्री थी। उसने जिनपतिसूरि को बुला कर प्रतिष्ठा कराई उस दिन से मंत्री की संतान खरतर गच्छ की क्रिया करने लगी” । -" गच्छ प्रबन्ध पृष्ट २४१ खरतर गच्छ पटावलि
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