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रहे थे इत्यादि । इन प्रपंचों के कारण उनको समय ही कहाँ मिलता था कि वे अजैनों को जैन बना सकें ? हाँ उस समय जैनियों की संख्या क्रोंड़ों की थी उसके आदर से कई भद्रिक लोगों को यंत्र मंत्र या किसी प्रकार का हल प्रपंच कर सवा लाख मनुष्यों को भगवान महावीर के छः कल्याण मना कर या भद्रिक स्त्रियों कों जिन पूजा छोड़ा कर अपने उपासक बना लिया हो इसमें भी आज के खरतर फूले ही नहीं समाते हैं पर उन्हों को यह मालुम नहीं है कि जिनदत्तसूरि ने तो क्रोडों से सवा लाख मनुष्यों को पतित बनाये पर ढूंढिये तेरहपन्थी तो लाखों से भी दो तीन लाख जैनियों को मूर्तिपूजा छोड़ा कर अपने उपासक बना लिया क्यों वे जिनदत्तसूरि से विशेष कहला सकेंगे ?
जिस प्रकार खरतरों ने चोरड़ियों के विषय में मिथ्या लेख लिखा है इसी प्रकार वाफना संचेति रॉका वगैरह जातियों के लिए भी मिथ्या प्रलाप किया है पर अभी तक खरतरों को इस बात का ज्ञान तक भी नहीं है कि इस समय जिन लोगों को जिन जातियों के नाम से सम्बोधन किया जाता है वास्तव में उनका मूल गोत्र यह है या मूलगोत्र से निकली हुई शाखाएँ है ? इन्होंने तो प्रचलित जाति को ही खरतराचार्य प्रतिबोधित लिख मारा है उदाहरण के तौर पर देखिये :
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