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क १५७१ ।
( ५६ ) ही हैं । मन्दिर मूर्तियों के शिलालेखों में रांकों को बलाह गौत्र को शाखा बतलाई है । देखिये:- .
“सं० १५२८. वर्षे वैशाख वद ६ सोम दिने उपकेश ज्ञातौ बलही गोत्रं रांका मा० गोयंद पु० सालिंग भा० बालहदे पु० दोल्हू नाम्ना भा० ललता दे पुत्रादि युतेन पित्रोः पुण्यार्थ स्व श्रेयसे च श्री नेमिनाथ बिंबं का० प्र० उपकेशगच्छीय श्री ककुदाचार्य सं० श्री देवगुप्तसूरिभिः"
बाबू० पूर्ण० सं०शि० द्वि० पृष्ठ १२९ लेखांक १५७१ । "सं० १५७६ वैशाख सुद ६ सोमे उपकेशज्ञातौ बलहि गोत्रे रांका शाखायां सा० एसड़ भा० हापू पुत्र पेथाकेन भा० जीका पुत्र २ देपा दूधादि परिवार युतेन वपुण्यार्थ श्री पद्मप्रभ बिंब कारितं प्रतिष्ठं श्रो उपकेशगच्छे ककुदाचार्य संताने भ० श्री सिद्धसूरिभिः दान्तराई वास्तव्यः"
बावूपूर्ण० सं० शि० ले० सं० प्रथम० पृष्ठ १९ लेखांक ७॥ इन शिलालेखों से स्पष्ट पाया जाता है कि गंका बांका कोई स्वतंत्र गोत्र नहीं है पर बलहा गोत्र की शाखा है और इन शाखाओं के निकलने का समय विक्रम की चौथी शताब्दी का है। उस समय खरतरगच्छ का ही नहीं पर नेमीचन्द सूरि तक का जन्म भी नहीं हुआ था। फिर समझ में नहीं आवा