________________
( १८ )
पूर्वोक्त शिलालेखों से पाठक अच्छी तरह से समझ गए होंगे कि आधुनिक खरतरों ने जैन जातियों के गच्छों को रद्दोबदल कर जैन समाज को कितना धोखा दिया है ? और किस प्रकार इतिहास का खून कर प्राचीनता को हानि पहुँचाई है ? जिसको मैं विस्तार से समय मिलने पर फिर कभी लिखूंगा । खरतरों की कल्पित गप्पों की अब चारों ओर पोल खुलने लगी, तब वे लोग द्वेष के वशीभूत हो कई भद्रिक लोगों को यों बहकाने लगे कि कई लोग यों कहते हैं कि आचार्य रत्नप्रभसूरि नेसियों में सवाल बनाये यह बिलकुल गलत है, क्योंकि न तो रत्नप्रभसूरि नाम के कोई आचार्य हुए हैं और न रत्नप्रभसूरि ने श्रोसिया में कभी श्रोसवाल बनाये ही हैं । ओसवाल तो खरतरगच्छाचार्यों ने ही बनाये हैं । इत्यादि, पर इस बात के कहने में सत्यता का श्रंश कितना है ? वह विद्वान् लोग निम्नलिखित प्रमाणों से स्वयं निर्णय कर सकते हैं।
हमें न तो रत्नप्रभसूरि का पक्ष है और न खरतरों से किसी प्रकार का द्वेष ही है । हम तो सत्य के संशोधक हैं । यदि रत्नप्रभसूरि ने ओसवाल नहीं बनाये और खरतरों ने ही श्रोसवाल बनाये यह बात सत्य है तो हमें मानने में किसी प्रकार का एतराज नहीं है ? क्योंकि खरतरे भी तो न्यूनाधिक प्ररूपना करते हुए भी जैन ही हैं । परन्तु इस कथन में खरतरों को कुछ प्रमाण देना चाहिये, जैसे कि रत्नप्रभसूरि के लिए प्रमाण मिलते हैं। अब हम खरतरों से यह पूछना चाहते हैं कि:
१ - ओसवाल ज्ञाति का वंश उपकेशवंश है जो हजारों
S
शिलालेखों से सिद्ध है और इस विषय के शिलालेखों के वाक्य हम
D