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तत्कुक्षि जातः किल राज कोष्ठा, गाराह गोत्रे सुकृतैक पात्रः ॥ श्री ओसवंशे विशदे विशाले, तस्याऽन्वयेऽमी पुरुषाः प्रसिद्धाः ॥
“शत्रु अय विमलवंशी के मन्दिर के शिलालेख से”
इस लेख से सिद्ध होता है कि विक्रम की आठवीं नौवीं शताब्दी पूर्व सवंश विशद यानी विस्तृत संख्या में था । और खरतरों का जन्म विक्रम की बारहवीं शताब्दी में हुआ है । फिर समझ नहीं पड़ती है कि खरतर लोग इस भाँति अडंग बंडंग गप्पें मार कर अपने गच्छ की क्या उन्नति करना चाहते हैं ?
५- पुरातत्व संशोधक इतिहासज्ञ मुंशी देवीप्रसादजी ने राजपूताना की शोध खोज कर आपको जो प्राचीनता का मसाला मिला उसे " राजपूताना की शोध खोज” नामक पुस्तक में छपवा दिया, जिसमें आप लिखते हैं कि कोटा के "अटारू" ग्राम में एक भग्न मन्दिर में वि० सं० ५०८ का भैंसाशाह का शिलालेख्न मिला है | भला इन जैनेतर विद्वान् के तो किसी प्रकार का पक्ष -- पात नहीं था । उन्होंने तो आंखों से देख के ही छपाया है। जब ५०८ में आदित्यनाग गोत्र' का भैंसाशाह विद्यमान था तब यह
सवंश कितना प्राचीन है कि उस समय खरतर तो भावी के गर्भ में ही थे फिर यह कहना कि ओसवाल ज्ञाति खरतराचार्यों ने ही बनाई कैसी अज्ञानता का वाक्य है ?
१ पट्टावलियों से भैंसाशाह का गौत्र आदित्य नाग सावित होता है -