Book Title: Jain Hitbodh
Author(s): Karpurvijay
Publisher: Jain Shreyaskar Mandal Mahesana

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Page 12
________________ "शुद्धि पत्रिका." पृष्टः लाटी अशुद्ध लजा रपद शोक करनेकी ७ १८ शुद्ध लज्जास्पद शोक करने लायक यह पातही धर्म कार्य उ-कोतप्तत्रपू जैसा लगता है और मानपान करनेकी १० ८ और १० १८ १९ २० २१ ३ पूत्र और आनन्द कामदेवतुल्य सुश्रावक समुदाय छोटे पुत्र भव्यजनही चलके परमकृपालु मिलता हुवेले भव्य शासनकी स्वछंदता મનુષ્યને नहि देना. सुज्ञजन २४ भव्यजन चने परम मिलाता हुवले शासनको स्वछता मनुष्य नहि. देना सुझजन १० ५३ १९ __ ५४ ८

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