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दायी-शान्तरसमय मोहक मुद्राकी, तथा सिद्धांत-आगम वानीकी परम भक्ति भावस सेवा उपासना करने लगे, क्लेशकों तो दारिधका मंदिर जानकर उस्का केवल परिहार करने लगे. जंठा कलंकी चुगलीखोराइ और अवर्णवाद-बुराइ-बदी करनी इन्हींका अन्यायरुप समझकर इन्हासे तदन अलग हो जानेमेही यत्नवान् हुवे. मुख और दुःखक वक्त समभावसे पवित्र नियम युराको अडगतासे धारन करक स्वजनता सार्थक करने लगे. माया-मृपा, पोलन कुछ और करना कुछ उनको तो छौंकारे हुवे शहर के समान गिनकर तजवीजसे परिहरने लगे. और मिथ्यात्वको तो परमशल्य, परमरोग तथा परम विपके समान जानकर उनका स्पर्श भी नहीं करतेथे. जैसी वहुतही कल्याणकारक उमदा नीतिका अवलंबकरे सुश्रावक वर्ग भवतता हुवा. और सुसाधु वर्ग तो महावत रुप महान प्रतिज्ञाओंकों सद्विवेकस ग्रहण करके सिंहकिशोरकी तरह बहादुरसेिं पालन कर सर्वज्ञ पुत्रका उत्तम विरुद सार्थक करते हुवे सफरी जहाज भुवाफिक यह संसारसमुद्रका सरलतासें आप खुद तिनतेथे और अपने आश्रितोंकोंभी यानि साधु श्रावकाको भी मुख पूर्वक तिरासकते थे. और परोपकारका अपना पवित्र स्वार्थरूपही गिनते थे.
असी परम उदार सर्वज्ञ नीतिका सम्यक् सेवन करते हुवे साधु, साध्वी, श्रावक, श्राविकारुप जंगमतीर्थ अपने समागममै आते हुवे भव्यजीवोंको सदुपदेश जलसें सिंचन कर-पाचन करके श्री