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कथित साधीवात्सल्यताकी उत्तम नीति रीतिको छोड अपनी मरजी मुजब संत साधुजन धिःकार के निकाल देखें. वैसी वेगभरी नीति ग्रहण कर मदोन्मत्ततासें हितवचनरुप अंकुशकोंभी हिसावमै न गिनै वो कैसा निंदापात्र और दुःखजनक गिना जावै ?
न्य और भावसें दुःखपाते हुवे साधर्मी भाइयों को अपनी शक्ति के अनुसार मदद देनेकी अपनी पवित्र फर्ज विसर कर, उनके हृदय भेदक दुःखोंके हामने गमगाकर देखाही करै, और दूसरे यश कीर्तिकी खातिर अनेक लखलूट-उडाउ खर्चकी अंदर पैसेका गैर उपयोग कर उपर बतलाये हुवे दुःखग्रसित साधीयोंकी संगीन आश्रयमै भाग लेनेकी सच्ची तक के वक्त निर्माल्य वहाने निकाल उलटा मुँह फिरा लेवै वो कैसा और कितनी लजा पैदा करनेवाली तथा हँसने योग्य वार्ता है ? वडेखा कहलवाकर औरत, बाग-बगीचे और वगी-फैटिनमै बेसुमार पैसा पवाद करनेसे नहीं डरता है; लेकिन अच्छे धर्मक्षेत्रकी अंदर शुभ परिणामसें निः स्वार्थके साथ सद्र प्यका सदुपयोग करनेमै संकुचित मन करनेवाले विवेक विकल जनोंकों किस वस्तुकी उपमा दे वो भी शोचने जैसा है ! अलवत परभवका साधन करनेमै पीछे हठनेवाले जन किसी शुभ-अच्छी उपमाके लायक तो हो सकते ही नहीं. इनसे भी ज्यादे शोक करनेकी खातिर अपने सर्वख धनको भी या होम करनेको तैयार होते है. जैसे स्वच्छंदी जनोंका अस्तित्व जगत्मे केवल भारभूत ही माना जाता है. मिली हुइ दौलत जव अंतमे असे विवेक विक