Book Title: Jain Hitbodh
Author(s): Karpurvijay
Publisher: Jain Shreyaskar Mandal Mahesana

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Page 10
________________ देनेके वास्ते मातृभाषामें शास्त्र तयोंके नवीन सरल लेख या भापांतरोंकी भी आवश्यकता बहुत उपयोगी समजते हैं वैसा मालुम होता है; जिससे कितनेक साधारन चरित्रादिक भाषांतर या नवीन लेख दृष्टिगोचर होने लगे हैं, उसी तरह परमपालु परमपूज्य मुनिवयं कर्पूरविजयजी महाराजने भी पूर्वोक्त शुभ आशयसें श्रम लेकर अपनी अमृत दृष्टिका जैन हितबोध' रूपी जो प्रथम कटाक्ष फैलाया है, सो भव्यजीवोंकों अधिकाधिक वोधदायी है. जिनका लाभ लेकर भव्यजीव अज्ञान विषका नाश करनेके वास्ते अधिकारी व__ नंगे औसी पूर्ण मतीति है. यह जैन हितबोध ग्रंथमें कितना गांभिर्य, और तत्त्व रहस्य.. है? उसका वर्णन हम प्रसिद्धकत्ता ग्रंथ. गौरव भयसें विराम पाकर हमारे सुज्ञ साधर्मी पुरुषोंको जाननेके वास्ते भलामन करेंगे 'ज्यों ज्यों इस ग्रंथका पुनः पुनः मनन होवगा, सौं त्यौं उनमेंसें अपूर्वा पूर्व आस्वाद आये बिगर- रहेगा ही,नहीं' जैसा हमार। अनुभव अतिशयोक्ति में नहीं गिना जायगा. इस ग्रंथमें धार्मीक विषयोके उपरांत अपने जैन बंधुओकी नीति रीति सुधर सके ऐसा विषयोंका प्रथन कीया गया है. और जैन पाठशालामें पठनेवाले लडके लडकीयको नैतिक वोध देने लायक यह ग्रंथ बहुत उत्तम हैं. और एसी निष्पक्षपात वृत्तिसें लीखा गया है की अन्य मतावलंबीयोभी बहुत आदर, हर्षसें इस ग्रंथका लाभ लेते है. और श्रीमंत सरकार गायकवाड महाराजाके केलवणी. खातेकी रकुलोमें इस ग्रंथ इनाम और लायब्रेरी खातेमें मंजुर कीय। . गया है, यह बावत ग्रंथकी उपयोगीताको प्रकट करती हैं..

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