Book Title: Jain Hitbodh Author(s): Karpurvijay Publisher: Jain Shreyaskar Mandal Mahesana View full book textPage 9
________________ गूमिका. . मिय धर्म बन्धु और भगिनिये ! श्री वीतराग परमात्मा __ अनूपम प्रभाव कुपा और हित बुद्धिसे कथन किये हुवे धर्म रहस्य के महात्म्यसें इहलोक परलोककी स्वार्थ परार्थ कार्य सिद्धि के अनन्य साधारण साधन होने परभी समित समयमें तत् तत् साधनोके सदुपयोगके अभावसे करके भव्य प्राणीयोंके कर्णपुटमें ज्ञानामृत सिंचनहारेकी न्युनता होनेसें, दिन प्रतिदिन ज्ञान, धर्म और नयादिकका नाश होता हुआ नजर आता है, वह पीरपुत्रोंकों और उसमें भी ज्यादे कर वीर शिष्यों को अल्प शोच्च नहीं है. , पूर्वकालमें मुनिवर्य, लिखित ग्रंथादिक चाहिये उतने साधन रहित होने परभी विधाभ्यास करने करानेके उपरांत धर्म रहस्यके तत्व रूपांतर रचने के साथ नियमित विहार करके अनेक मिथ्यात्वि. योकों भी उपदेश द्वारा सद्धर्म मापक होकर वीरांतवासित्वका साफल्य कर शास्त्रोन्नतिमें एकांत जय मिलातेथे जव आगे ऐसाथा तव आधुनिक वरूतमें पूर्वोक्त मुनियोंके उपदेशकों समयानुसार अनुकरण करनेहारे वीर शिष्योके दर्शन करनेमें भी साधर्मीजन हो भाग्यवान् नहीं होते है, तो मुक्ति सुधारसकी पि. पासा या अन्य भतिवोधकी आशा-उमेद कहांसें रहने ही पावे ? तदपि अभी कितनेक मुभिराज दुर्गम अज्ञानी देशमे विचर करके खकर्तव्य बजाकर धर्माभिमानीओंकों पुनः ज्ञानामृतमें र. सिक बनाने के लिये उत्सुक हो रहे हैं, या हुवे हैं, उसके साथ हरएक धर्माभिलाषीको ज्ञाता मुनिराजोंकी सूक्तिका संगीन लाभ .Page Navigation
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