Book Title: Jain Hitbodh Author(s): Karpurvijay Publisher: Jain Shreyaskar Mandal Mahesana View full book textPage 8
________________ पडै वैसा है. अपने खास कर्तव्यमें अपनकों शिथिल करनेहारे या भूल खिलाकर उलटे मार्गपर चढानहारे पांच को दुश्मन जैसे पांच प्रमादका परिहार करनेके वास्ते 'प्रमाद पंचक परिहारमें ' जगह जगह महात्माओंके वाक्यास समर्थन करके बने यहां तक समझ देनमें आइ है. पद शांत रस युक्त साथ प्रसंगोपात बंध बैठत होनसे रसज्ञको उक्त विषय अच्छी असर कर सकै वैसा है. जैनोंकी पूर्वस्थितिके साथ मुकाबला करने से अपनी इस वरुतकी स्थिति बहुतही दयामय मालुम होती है. कुसंप, सत्यज्ञानकी गंभीरन्यूनता, ज्ञानका घटित उपयोग करनेकी न्यूनता, लक्ष्मीको तावे करने के वास्ते साधनभूत प्रमाणिकतादिकका होता हुवा अनादर, और नीमिरीति धर्मशिक्षणमें गंभीर न्युनता वगैरः इनके नजर आते हुवे । सवव हैं, उन पावतमें सामान्य रीतिसें जैन वर्गकों यथामति अति अगत्यकी सुचनामे करनेमें आइ है यानि इत्तला दीगइ है. उमीद है कि-यदि बुद्धिवलसें मनन पूर्वक उनद्वारा योग्य कदम भरनेमें आयेंगे, तो अपन तुरंत कुछ अच्छे सुधारको दाखिल कर सकेंगे.. आखिरमें उज्वल गोहरके लरकी समान अमूल्य और बहुत ७५योगी 'सार शिक्षा संग्रह' दाखल करनेमें आया है, और उसीके अंत विभागमें आत्माके अलग अलग प्रकार, उच्च स्थिति पानेका अनुकुल मार्ग और परमात्मपद वगैरः वावतोंका समावेश करने में आया है; तदपि मति मंदतादिकसें कुछभी उत्सुत्र लीखा गया हो उसकी माफी ममकर सुधार लेनेकी सुहृदयोंको नम्न प्रार्थना है. . इसलं श्री शांतिः मुनि गुणमकरंदाभिलाषी. करविजय.Page Navigation
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