Book Title: Jain Hitbodh
Author(s): Karpurvijay
Publisher: Jain Shreyaskar Mandal Mahesana

View full book text
Previous | Next

Page 6
________________ स्वपर हितकारी मार्गकाही सेवन करनहारे सज्जनोंकी संस्कृतिका सदा अनुमोदन कर सकै, यानि उसको लेशमात्र निंदे नहीं, इया या अदेखाइ जरासी भी करै नहीं, किंतु सुकृत्यकी ही द्धि हो सकै वैसी अंत:करणसे दरकार रखकर-वचनद्वारा वैसा ही वोल कर और शरीरकों भी उसी प्रकार प्रवर्त्ता सकै वैसी भन्यजनों __ की तर्फ यथामति प्रेरण करने के वास्ते, और सहज ही सी शुभ अत्ति करनेहारे प्यारे भाइ और भगिनियोकों स्वपर हितकारी मार्ग निःस्वार्थतासे स्वार्थ भोग देकर निर्भयता और निचलतासे विशेष प्रकारस उमदा शद्ध प्रवृत्ति करानेके वास्ते, अपने आसन्नीपकारी चरम तीर्थंकर श्री महावीर स्वामीजीका उत्तमोत्तम चरित्र ग्रहण करना-एकाग्रपनेसे विचार लेना सो बहुत उपयोगी है, असा निश्चय करके प्रसंगोपात संक्षेपसे प्रभुका सद्वर्तन वर्णन कर निर्वाण कल्याणक सह अपने आपका प्रभुकी मजा-पुत्र पुत्री समानका कया कया कर्तव्य है, उनका संक्षेपसे बयान देकर सहज आत्म प्रेरणासे इस ग्रंथका उपक्रम-आरंभ किया है. उनमेंसें राजहंसकी तरह गुण मात्रकाही ग्रहण करके सन्मागका सेवन कर सजन सदा सुखी होवै यही आंतरिक इच्छा है. सो सफल हो ! और जगजयवंत श्री जिनशासनकी शोभा दिनप्रतिदिन द्धिगत शे! तथा शुद्धाशयसें जिनाज्ञाकों आराधकर समस्त जैनवर्ग जय कमलाके स्वामी हो !! उक्त आशिर्वाद पूर्वक प्रस्तुत ग्रंथकी प्रस्तापना द्वारा तद् अंतर्गत विषय-संबंधी दो शब्द कहता हुँ: 'यथाशक्ति यतनीयं शुभे'-शुभकार्यमें यथाशक्ति यत्म करना. इस महा वाकयानुसार चलकर तात्विक सुखके अर्थिजनकों स्त्र शक्ति मुजव स्व-पर हित साधनके वास्ते जरुर दरकार रखनीः

Loading...

Page Navigation
1 ... 4 5 6 7 8 9 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 ... 331