Book Title: Jain Hitbodh Author(s): Karpurvijay Publisher: Jain Shreyaskar Mandal Mahesana View full book textPage 5
________________ प्रस्तावना. सरस शांत रसके समुद्र, अत्यंत पवित्र गुणरत्नोंके निधानः और भविक कमलको भवोधने के वास्ते सूर्य समान अनंत गुणी श्री जिनेश्वरजीकों प्रणाम करके अनंत गुण गंभीर श्रीगौतम गण घरजीका चित्तमें ध्यान धर, और वाग्देवी - साक्षात् ज्ञानमूर्ति सरस्वतिजीको एकाग्र मनसे स्मरण चितवन करता हुं; क्योंकि यथाविधि प्रमाद परिहर कर श्रीमन् महावीर स्वामीजीके साधु साध्वी, श्रावक, श्राविकाओं रूप सर्व प्रजा सदा सुखी होवे उस वास्ते; और दुषम काल आदि विषम संयोगोंकों पाकर चाहिये वैसा सम्यम् ज्ञान विवेकके विरहसें सर्वज्ञ मणीत उत्तम नीति रीतिकी गंभीर " न्यूनतासें करके आज कल चारों और फैला हुआ अज्ञान रूप अंधकारकों भस्मीभूत करनेके वास्ते; काले मुँहवाले कुसंपादि दुर्गुण चोरोंका आगमन बंध करनेके वास्ते, सम्यग् ज्ञानोद्योत प्रकटानेके वास्ते, सर्व सुखकर सृसंपादि सुगुण रत्न निधान साधने के वास्ते; समस्त साधमजन एक दूसरेकों योग्य मदद देकर, जगाहतकर श्री जिनराजके शासनकी यथा शक्ति उन्नति - प्रभावना कर सकै थापी प्रमादके परतंत्र रहनेसें भई हुई या होती हुइ मलीनता दूर करसकै सब संक्लेश दूरकर श्रीवीतराग प्रभुका रागद्वेष मोहरूप दुष्ट दोषों को पीस डालनेका सदुपदेश सार्थक कर सकें, यावत् निर्मल अंतःकरणसे सुसंप जंजीर वृद्ध होकर एकाग्रता से स्वपर हितकर मार्गकोंही अवलंबकर रह सकै, वैसी ही हितशिक्षा योग्य को देनेके वास्ते, हर हमेशां प्रयत्नपरायग रह सकै, और 0Page Navigation
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