Book Title: Jain Dharm me Nari ki Bhumika
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur

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Page 7
________________ खण्ड ग्रहण करने पर अन्य पक्षी उसे विविध कष्ट देते हैं उसी प्रकार दारूण कष्ट स्त्री को ग्रहण करने पर पुरुषों को होते हैं, प्रदीप्त तृणराशि की भाँति ज्वलन स्वभाव को न छोड़ने वाली, घोर पाप क समान दुर्लघ्य, कूट कार्षापण की भाँति अकालचारिणी, तीव्र क्रोध की भाँति दुर्लक्ष्य, दारूण दुखदायिका, घृणा की पात्र, दुष्टोपचारा, चपला, अविश्वसनीया, एक पुरूष से बंधकर न रहने वाली, यौवनावस्था में कष्ट से रक्षणीय, बाल्यावस्था में दुःख से पाल्य, उद्वेगशीला, कर्कशा, दारूण बैर का कारण, रूप स्वभाव गर्विता, भुजंग के समान कुटिल गति वाली, दुष्ट घोड़े के पदचिन्ह से युक्त महाजंगल की भाँति दुर्गम्य, कुल, स्वजन और मित्रों से विग्रह कराने वाली, परदोष प्रकाशिका, कृतघ्ना, वीर्यनाशिका, शूकरवत् जिस प्रकार शूकर खाद्य-पदार्थ को एकान्त में ले जाकर खाता हैं उसी प्रकार भोग हेतु पुरूष को एकान्त में ले जाने वाली, अस्थिर स्वभाव वाली, जिस प्रकार अग्निपात्र का मुख आरम्भ में रक्त हो जाता हैं किन्तु अन्ततोगत्वा काला हो जाता हैं उसी प्रकार नारी आरम्भ में राग उत्पन्न करती हैं परन्तु अन्तत: उससे विरक्ति ही उत्पन्न होती है, पुरूषों के मैत्रीविनाशादि की जड़, बिना रस्सी की पाग, काष्ठरहित वन की भाँति पाप करके पश्चात्ताप में जलती नहीं हैं । कुत्सित कार्य में सदैव तत्पर, अधार्मिक कृत्यों की वैतरणी, असाध्य व्याधि, वियोग पर तीव्र दुःखी न होने वाली, रोगरहित उपसर्ग, रतिमान के लिए मनोभ्रम - कारण, शरीर-व्यापी दाह का कारण, बिना बादल बिजली के समान, बिना जल के प्रवाहमान और समुद्रवेग की भाँति नियन्त्रण से परे कही गई है। तन्दुलवैचारिक की वृत्ति में इनमें से अधिकांश गुणों के सम्बन्ध में एक- एक कथा भी दी गई । " उत्तराध्ययनचूर्णि' में भी स्त्री को समुद्र की तरंग के समान चपल स्वभाव वाली, सन्ध्याकालीन आभा के समान क्षणिक प्रेम वाली और अपना स्वार्थ सिद्ध हो जाने पर पुरूष का परित्याग कर देने वाली कहा गया है। आवश्यक भाष्य और निशीथचूर्णी में भी नारी के चपल स्वभाव और शिथिल चरित्र का उल्लेख हुआ है ।" निशीथचूर्णि में यह भी कहा गया है कि स्त्रियाँ थोड़े से उपहारों से ही वशीभूत की जा सकती है और पुरूषों को विचलित करने में सक्षम होती ह। " आचारांगचूर्णि एवं वृत्ति में उसे शीतपरिषह • कहा गया है अर्थात् अनुकूल लगते हुए भी त्रासदायी होती है। 12 सूत्रकृतांग में कहा गया हैं कि स्त्रियाँ पापकर्म नहीं करने का वचन देकर भी पुनः अपकार्य में लग जाती हैं। इसकी टीका में टीकाकार ने कामशास्त्र का उदाहरण देकर कहा हैं कि जैसे दर्पण पर पड़ी हुई छाया दुर्ग्राह्य होती हैं 14 वैसे ही स्त्रियों के हृदय का भाव सहसा ज्ञात नहीं होता। सूत्रकृतांग वृत्ति में नारी चरित्र के विषय में कहा गया है अच्छी Jain Education International जैन धर्म में नारी की भूमिका : 6 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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