Book Title: Jain Dharm me Nari ki Bhumika
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur
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24. देवीओ चक्केसरी अजिया दुरियारी कालि महाकाली।
अच्चुय संता जाला सुतारया असोय सिरिवच्छा। पवर विजयं कुसा पण्णत्ती निव्वाणि अच्चुया धरणी। वइरोट्टाच्छुत गंधारि अंब पउमावइ सिद्धा ।।
-प्रवचनसारोद्धार, भाग 1, पृ.375-76,
देवचंद लालभाई जैन पुस्तकोद्धार संस्था सन् 1922 25. तीसे सो वयणं सोच्चा संजयाए सुभासियं। अंकुसेण जहा नागो धम्मे संपडिवाइयो॥
-उत्तराध्ययन सूत्र 22, 48 (तथा) दशवैकालिकचूर्णि, पृ. 87-88 मणिविजय सिरिज भावनगर । 26. भगवं वंशी सुन्दरीओ पत्थवेति इमं व भणितो। ण किर हत्थिं विलग्गस्स केवलनाणं उप्पज्जइ ॥
-आवश्यकचूर्णि भाग 1, पृ. 211 27. वंतासी पुरिसो रायं, न सो होइ पसंसिओ। माहणेणं परिचतं धणं आदाउमिच्छसि ।।
-उत्तराध्ययन सूत्र 14, 38 एवं उत्तराध्ययनचूर्णि, पृ. 230
(ऋषभदेव केशरीमल संस्था रतलाम, सन् 1933) 28. भगवती 12/2 29. जइ वि परिवित्तसंगो तहा वि परिवडइ। महिलासंसग्गीए कोसाभवणूसिय व्व रिसी॥
--भक्तपरिज्ञा, गा. 128 (तथा) तुम एत सोयसि अप्पणं णवि, तुम एरिसओ हति ।।
-आवश्यकचूर्णि 2, पृ.187 ण दुक्कर तोडिय अंबपिंडी, ण दुक्करणच्चितु सिक्खियाए। तं दुक्करं तं च महाणुभागं, ज सो मुणी पमयवणं निविट्ठो॥
-वही, 1, पृ. 555
30. कल्पसूत्र, क्रमशः 197, 167, 157 व 134, प्राकृत भारती, जयपुर,
1977 ई.
जैन धर्म में नारी की भूमिका :44
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