Book Title: Jain Dharm me Nari ki Bhumika
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur

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Page 16
________________ लादने का प्रयास करते हैं। चूर्णि साहित्य में ऐसी अनेक कथाएँ हैं जिनमें पुरूष स्त्री को अपने धार्मिक विश्वासों की स्वतंत्रता नहीं देता ह। इसी प्रकार धर्मसंघ में भी आगम युग में भिक्षुणी संघ की व्यावस्था को भिक्षुसंघ से अधिक नियन्त्रित नहीं पाते हैं। भिक्षुणी संघ अपने आन्तरिक मामलों में पूर्णतया आत्मनिर्भर था, गणधर अथवा आचार्य का उस पर बहुत अधिक अंकुश नहीं था, किन्तु छेदसूत्र एवं आगमिक व्याख्या साहित्य के काल में यह नियन्त्रण क्रमश: बढ़ता जाता है। इन ग्रंथों में चातुर्मास, प्रायश्चित, शिक्षा, सुरक्षा आदि सभी क्षेत्रों में भिक्षु वर्ग का प्रभुत्व बढ़ता हुआ प्रतीत होता है। फिर भी बौद्ध भिक्षुणी संघकी अपेक्षा जैन भिक्षुणी संघ में स्वायत्ता अधिकथी। किन्हीं विशेष परिस्थितियों को छोडकर वेदीक्षा, प्रायश्चित, शिक्षा और सुरक्षा और सुरक्षा की अपनी व्यवस्था करती थीं और भिक्षु संघ से स्वतंत्र विचरण करते हुए धर्मोपदेश देती थीं जबकि बौद्धधर्मसंघ में भिक्षुणी को उपोसथ, वर्षावास आदि भिक्षुसंघ के अधीन करने होते थे। यद्यपि जहाँ तक व्यावहारिक जीवन का प्रश्न था जैनाचार्य हिन्दू परम्परा के चिन्तन से प्रभावित हो रहे थे। मनुस्मृति के समान व्यवहारभाष्य में भी कहा गया -- जाया पितिव्वसा नारी दत्ता नारी पतिव्वसा। विहवा पुत्तवसा नारी नात्थि नारी सयंवसा ॥ अर्थात् जन्म के पश्चात् स्त्री पिता के अधीन, विवाहित होने पर पति के अधीन और विधवा होने पर पुत्र के अधीन होती है अत: वह कभी स्वाधीन नहीं ह। इस प्रकार आगमिक व्याख्या साहित्य में स्त्री की स्वाधीनता सीमित की गयी ह । पुत्र-पुत्री की समानता का प्रश्न चाहे प्रारम्भिक वैदिक धर्म में पुत्र और पुत्री की समकक्षता स्वीकार की गई हो किन्तु परवर्ती हिन्दू धर्म में अर्थोपार्जन और धार्मिक कर्मकाण्ड दोनों ही क्षेत्रों में पुरूष की प्रधानता के परिणामस्वरूप पुत्र का स्थान महत्वपूर्ण हो गया और यह उद्घोष किया गया कि पुत्र के बिना पूर्वजों की सुगति/मुक्ति सम्भव नहीं ।45 फलत: आगे चलकर हिन्दू परम्परा में कन्या की उत्पत्ति को अत्यन्त हीनदृष्टि से जैन धर्म में नारी की भूमिका:15 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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