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ज्ञातव्य हैं कि बौद्धपरम्परा, जो जैनों के समान ही श्रमण धारा का एक अंग थी, स्त्री के प्रति उतनी उदार नहीं बन सकी, जितनी जैन परम्परा | क्योंकि बुद्ध स्त्री को निर्वाण पद की अधिकारिणी मानकर भी यह मानते थे कि स्त्री बुद्धत्व को प्राप्त नहीं कर सकती है। नारी को संघ में प्रवेश देने में उनकी हिचक और उसके प्रवेश के लिए अष्टगुरू धर्मों का प्रतिपादन जैनों की अपेक्षा नारी के प्रति उनके अनुदार दृष्टिकोण का ही परिचायक है । यद्यपि हिन्दू धर्म में शक्ति उपासना के रूप में स्त्री को महत्व दिया गया है, किन्तु जैनधर्म में तीर्थंकर की जो अवधारणा है, उसकी अपनी एक विशेषता है। वह यह सूचित करती है कि विश्व का सर्वोच्च गरिमामय पद पुरूष और स्त्री दोनों ही समान रूप में प्राप्त कर सकते हैं । यद्यपि परवर्ती आगमों एवं आगमिक व्याख्या - साहित्य में इसे एक आश्चर्यजनक घटना कहकर पुरूष के प्राधान्य को स्थापित करने का प्रयत्न अवश्य किया गया। (स्थानांग 10/160) किन्तु आगमिक व्याख्याओं के काल में जैन परम्परा में भी पुरूष की महत्ता बढ़ी और ज्येष्ठकल्प के रूप में व्याख्यायित किया गया । अंग आगमों में मुझे एक भी ऐसा उदाहरण नहीं मिला जिसमें साध्वी अपनी प्रवर्तिनी, आचार्य और तीर्थंकर के अतिरिक्त दीक्षा में कनिष्ठ भिक्षु को वन्दन या नमस्कार करती हो, किन्तु परवर्ती आगम एवं आगमिक व्याख्या - साहित्य में स्पष्ट रूप से कहा गया हैं कि सौ वर्ष की दीक्षित साध्वी के लिए भी सद्यः दीक्षित मुनि वन्दनीय है। (वृहत्कल्पभाष्य भाग 6 गाथा 6399 कल्पसूत्र कल्पलता टीका) । सम्भवत: जैन परम्परा में पुरूष की ज्येष्ठता का प्रतिपादन बौद्धों के अष्टगुरू धर्मों के कारण ही हुआ हो ।
जैनधर्म संघ में नारी की महत्ता को यथासम्भव सुरक्षित रखने का प्रयत्न किया गया है । मथुरा में उपलब्ध अभिलेखों से यह स्पष्ट होता है कि धर्मकार्यों में पुरूषों के समान नारियाँ भी समान रूप से भाग लेती थीं। वे न केवल पुरुषों ने समान पूजा, उपासना कर सकती थो, अपितु वे स्वेच्छानुसार दान भी कर सकती थीं, और मन्दिर आदि बनवाने में समान रूप से भागीदार होती थीं। जैन परम्परा में मूर्तियों पर जो प्राचीन अभिलेख उपलब्ध होते हैं उनमें सामान्य रूप से पुरूषों के साथ-साथ स्त्रियों के नाम भी उपलब्ध होते हैं जो इस तथ्य के स्पष्ट प्रमाण हैं । 11 यद्यपि दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनों परम्पराओं में कुछ लोग यह मानते हैं कि स्त्री को जिन प्रतिमा के स्पर्श, पूजन एवं अभिषेक का अधिकार नहीं है किन्तु यह एक परवर्ती अवधारणा है । मथुरा के जैन शिल्प में साधु के समान ही साध्वी का अंकन
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जैन धर्म में नारी की भूमिका : 13
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