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आदि में स्पष्ट रूप से ऐसे उल्लेख हैं कि यदि संघस्थ भिक्षुणियों की शील-सुरक्षा के लिए दुराचारी व्यक्ति की हत्या करना भी अपरिहार्य हो जाये तो ऐसी हत्या को भी उचित माना गया। नारी के शील की सुरक्षा करनेवाले ऐसे भिक्षु को संघ में सम्मानित भी किया जाता था। बृहत्कल्पभाष्य में कहा गया है कि जल, अग्नि, चोर और दुष्काल की स्थिति में सर्वप्रथम स्त्री की रक्षा करनी चाहिए। इसी प्रकार डूबते हुए श्रमण और भिक्षुणी में पहले भिक्षुणी को और क्षुल्लक और क्षुल्लिका में से क्षुल्लिका की रक्षा करनी चाहिए। इस प्रकार नारी की रक्षा को प्राथमिकता दी गई।
सती प्रथा और जैनधर्म
उत्तरमध्य युग में नारी उत्पीड़न का सबसे बीभत्स रूप सती प्रथा बन गया था, यदि हम सती प्रथा के सन्दर्भ में जैन आगम और व्याख्या साहित्य को देखें तो स्पष्ट रूप से हमें एक भी ऐसी घटना का उल्लेख नहीं मिलता जहाँ पत्नी पति के शव के साथ जली हो या जला दी गयी हो । यद्यपि निशीथचूर्णि में एक ऐसा उल्लेख मिलता ह जिसके अनुसार सौपारक के पाँच सौ व्यापारियों को कर न देने के कारण राजा ने उन्हें जला देने का आदेश दे दिया था उक्त उल्लेख के अनुसार उन व्यापारियों की पत्नियाँ भी उनकी चिताओं में जल गयी थों। लेकिन जैनाचार्य इसका समर्थन नहीं करते हैं। पुन: इस आपवादिक उल्लेख के अतिरिक्त हमें जैन साहित्य में इस प्रकार के उल्लेख उपलब्ध नहीं होते हैं, महानिशीथ में इससे भिन्न यह उल्लेख भी मिलता हैं कि किसी राजा की विधवा कन्या सती होना चाहती थी किन्तु उसके पितृकुल में यह रिवाज नहीं था अत: उसने विचार त्याग दिया। इससे लगता ह कि जैनाचार्यां ने पति की मृत्योपरान्त स्वेच्छा से भी अपने देह-त्याग को अनुचित ही माना ह और इस प्रकार के मरण को बाल-मरण या मूर्खता ही कहा ह। सती प्रथा का धार्मिक सर्मथन जैन आगम साहित्य और उसकी व्याख्याओं में हमें कही नहीं मिलता ह।
यद्यपि आगमिक व्याख्याओं में दधिवाहन की पत्नी एवं चन्दना की माता धारिणी आदि के कुछ ऐसे उल्लेख अवश्य हैं जिसमें ब्रह्मचर्य की रक्षा के निमित्त देह-त्याग किया गया है किन्तु यह अवधारणा सती प्रथा की अवधारणा से भिन्न ह । जैन धर्म और दर्शन यह नहीं मानता है कि मृत्यु के बाद पति का अनुगमन करने से अर्थात् जीवित चिता में जल मरने से पुन: स्वर्गलोक में उसी पति की प्राप्ति होती
जैन धर्म में नारी की भूमिका :24
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