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आधार पर यह कहा जा सकता है कि आचार्य और उपाध्याय भी कभी-कभी उन्हें शिक्षा प्रदान करते थे । व्यवहारसूत्र में उल्लेख है कि तीन वर्ष की पर्याय वाला निर्ग्रन्थ, तीस वर्ष की पर्याय वाली भिक्षुणी का उपाध्याय तथा पाँच वर्ष की पर्याय वाला निर्ग्रन्थ, साठ वर्ष की पर्याय वाली श्रमणी का आचार्य हो सकता था । " जहाँ तक स्त्रियों के द्वारा धर्मग्रन्थ के अध्ययन का प्रश्न है अति प्राचीनकाल में इस प्रकार का कोई बन्धन रहा हो, हमें ज्ञात नहीं होता । अन्तकृतदशा आदि आगम ग्रन्थों में ऐसे अनेक उल्लेख मिलते हैं जहाँ भिक्षुणियों के द्वारा सामायिक आदि 11 अंगो का अध्ययन किया जाता था । यद्यपि आगमों में न कहीं ऐसा कोई स्पष्ट उल्लेख है कि स्त्री दृष्टिवाद का अध्ययन नहीं कर सकती थी और न ही ऐसा कोई विधायक सन्दर्भ उपलब्ध होता है, जिसके आधार पर यह कहा जा सके कि स्त्री दृष्टिवाद का अध्ययन करती थी किन्तु आगमिक व्याख्याओं में स्पष्ट रूप से दृष्टिवाद का अध्ययन स्त्रियों के लिए निषिद्ध मान लिया गया । भिक्षुणियों के लिए दृष्टिवाद का निषेध करते हुए कहा गया कि स्वभाव की चंचलता, एवं बुद्धि-प्रकर्ष में कमी के कारण उसके लिए दृष्टिवाद का अध्ययन निषिद्ध बताया गया है। जब एक ओर यह मान लिया गया कि स्त्री को सर्वोच्च केवलज्ञान की प्राप्ति हो सकती है, तो यह कहना गलत होगा कि उनमें बुद्धि प्रकर्ष की कमी है। मुझे ऐसा लगता है कि जब हिन्दू परम्परा में उसी नारी को, जो वैदिक ऋचाओं की निर्मात्री थी, वेदों के अध्ययन से वंचित कर दिया गया तो उसी के प्रभाव में आकर उस नारी को जो तीर्थंकर के रूप
अंग और मूल साहित्य का मूलस्त्रोत थी, दृष्टिवाद के अध्ययन से वंचित कर दिया गया । इसका एक कारण यह भी हो सकता हैं कि दृष्टिवाद का मुख्य विषय मूलत: दार्शनिक और तार्किक था और ऐसे जटिल विषय के अध्ययन को उनके लिए उपयुक्त न समझकर उनका अध्ययन निषिद्ध कर दिया गया हो। बृहत्कल्पभाष्य और व्यवहार भाष्य की पीठिका में उनके लिए महापरिज्ञा, अरूणोपपात और दृष्टिवाद के अध्ययन का निषेध किया गया है किन्तु आगे चलकर निशीथ आदि अपराध और प्रायश्चित्त सम्बन्धी ग्रन्थों के अध्ययन से भी उसे वंचित कर दिया गया। यद्यपि निशीथ आदि के अध्ययन के निषेध करने का मूल कारण यह था कि अपराधों की जानकारी से या तो वह अपराधों की ओर प्रवृत्त हो सकती थी या दण्ड देने का अधिकार पुरूष अपने पास सुरक्षित रखना चाहता था किन्तु निषेध का यह क्रम आगे बढ़ता ही गया । बारहवीं - तेरहवीं शती के पश्चात् एक युग ऐसा भी आया
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जैन धर्म में नारी की भूमिका : 30
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