Book Title: Jain Dharm me Nari ki Bhumika
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur

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Page 41
________________ उपस्थिति नहीं देखी जाती है। यह एक दुर्भाग्यपूर्ण घटना रही है। चाहे इसके मूल में भी बौद्धाचार्यों के मन में बुद्ध का यह भय ही काम कर रहा हो कि भिक्षुणियों की उपस्थिति से संघ चिरकाल तक जीवित नहीं रहेगा। जबकि जैनधर्म में आज भी सुसंगठित भिक्षुणी संघ उपस्थित है और भिक्षुओं की अपेक्षा भिक्षुणियों की संख्या न से अधिक है। यह बौद्धधर्म की अपेक्षा जैनधर्म के नारी के प्रति उदार दृष्टिकोण का परिचायक है। ( 3 ). ईसाई धर्म और जैनधर्म :- नारी के सम्बन्ध में ईसाई और जैनधर्म का दृष्टिकोण बहुत कुछ समान है। तीर्थकरों की माताओं के समान ईसाईधर्म में यीशु की माता मरियम को भी पूजनीय माना गया है। साथ ही ईसाईधर्म में जैनधर्म भांति ही भिक्षुणी संस्था की उपस्थिति रही है । आज भी ईसाईधर्म में न केवल भिक्षुणी संस्था सुव्यवस्थित रूप में अस्तित्व रखती है अपितु ईसाई भिक्षुणियाँ (Nuns) अपने ज्ञानदान और सेवाकार्य से समाज में अधिक आदरणीय और महत्त्वपूर्ण बनी हुई हैं। ईसाई धर्म संघ द्वारा स्थापित शिक्षा संस्थाओं, चिकित्सालयों और सेवाश्रमों में इन भिक्षुणियों की त्याग और सेवा-भावना अनेक व्यक्तियों के मन को मोह लेती है । यदि जैन समाज उनसे कुछ शिक्षा ले तो उसका भिक्षुणी संघ समाज के लिए अधिक लोकोपयोगी बन सकता हैं और नारी में निहित समर्पण और सेवा की भावना का सम्यक् उपयोग किया जा सकता है । 1 जहाँ तक सामाजिक जीवन का प्रश्न है, निश्चय ही पाश्चात्य ईसाई समाज में नारी की पुरूष से समकक्षता की बात कही जाती है । यह भी सत्य है कि पाश्चात्य देशों में नारी भारतीय नारी की अपेक्षा अधिक स्वतंत्र हैं और अनेक क्षेत्रों में पुरूषों के समकक्ष खड़ी हुई है किन्तु इन सबका एक दुष्परिणाम यह हुआ कि वहाँ का पारिवारिक व सामाजिक जीवन टूटता हुआ दिखाई देता है । बढ़ते हुए तलाक और स्वछन्द यौनाचार ऐसे तत्त्व हैं जो ईसाई नारी की गरिमा को खण्डित करते हैं । जहाँ हिन्दू धर्म और जैन धर्म में विवाह सम्बन्ध को आज भी न केवल एक पवित्र सम्बन्ध माना जाता है, अपितु एक अजीवन सम्बन्ध के रूप में देखा जाता है, वहाँ ईसाई समाज में आज विवाह यौन - वासनाओं की पूर्ति का माध्यम ही रह गया है । उसके पीछे रही हुई पवित्रता एवं आजीवन बन्धन की दृष्टि समाप्त हो रही है। यदि ईसाई धर्म अपने समाज को इस दोष से मुक्त कर सके तो सम्भवत: वह नारी की गरिमा प्रदान करने की दृष्टि से विश्व धर्मों में अधिक सार्थक सिद्ध हो सकता है। (4). इस्लाम धर्म और जैनधर्म :- जहाँ तक इस्लाम धर्म और जैन Jain Education International जैन धर्म में नारी की भूमिका : 40 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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