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धर्म का सम्बन्ध हैं सर्वप्रथम हमें यह ध्यान में रखना चाहिए कि दोनों की प्रकृति भिन्न ह। इस्लामधर्म में सन्यास की अवधारणा प्राय: अनुपस्थित है और इसलिए उसमें नारी को पुरूष के समकक्ष स्थान मिल पाना सम्भव ही नही है। उसमें अक्सर नारी को एक भोग्या के रूप में ही देखा गया है। बहुपत्नीप्रथा का खुला समर्थन भी इस्लाम में नारी की स्थिति को हीन बनाता है। वहाँ न केवल पुरूष को बहुविवाह का अधिकार है। अपितु उसे यह भी अधिकार है कि वह चाहे जब मात्र तीन बार तलाक कहकर विवाह बन्धन को तोड़ सकता है। फलत: उसमें नारी को अत्याचार व उत्पीड़न की शिकार बनाने की सम्भावनाएँ अधिक रही ह । यह केवल हिन्दूधर्म व जैनधर्म की ही विशेषता ह कि उसमें विवाह के बन्धन को आजीवन एक पवित्र बन्धन के रूप में स्वीकार किया जाता ह और यह माना जाता ह कि यह बन्धन तोड़ा नहीं जा सकता ह । यद्यपि इस्लाम में नारी के सम्पत्ति के अधिकार को मान्य किया गया ह, किन्तु व्यवहार में कभी भी नारी पुरूष की कैद एवं उत्पीड़न से मुक्त नहीं रह सकी। उसमें स्त्री पुरूष की वासनापूर्ति का साधन ही बनी रही। भारत में पर्दाप्रथा, सतीप्रथा जैसे कुप्रथाओं के पनपने के लिए इस्लाम धर्म ही अधिक जिम्मेदार रहा ह।
इस तुलनात्मक विवरण के आधार पर अन्त में हम यह कह सकते हैं कि विभिन्न धर्मों की अपेक्षा जैनधर्म का दृष्टिकोण नारी के प्रति अपेक्षाकृत अधिक व्यावहारिक एवं उदार है। यद्यपि इस सत्य को स्वीकार करने में हमें कोई आपत्ति नही है कि समसामयिक परिस्थितियों और सहवर्ती परम्पराओं के प्रभाव से जैनधर्म में भी नारी के मूल्य व महत्ता का क्रमिक अवमूल्यन हुआ है। किन्तु उसमें उपस्थित भिक्षुणी संघ ने न केवल नारी को जो गरिमा प्रदान की, अपितु उसे सामाजिक उत्पीड़न और पुरूष के अत्याचारों से बचाया भी है। यही जैनधर्म की विशेषता ह। माघ शुक्ल पूर्णिमा वि. संवत् 2048
सागरमल जैन
निदेशक, प्राच्य विद्यापीठ, शाजापुर (म.प्र.)
जैन धर्म में नारी की भूमिका :41
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