Book Title: Jain Dharm me Nari ki Bhumika
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur

View full book text
Previous | Next

Page 40
________________ भिक्षुणी संघ प्रत्येक क्षेत्र में भिक्षु संघ के अधीन था। चिर प्रव्रजिता और वयोवृद्ध भिक्षुणी के लिए सद्य: प्रव्रजित भिक्षु न केवल वन्दनीय था अपितु वह उनका अनुशास्ता भी हो सकता था। भिक्षुणी को उपदेश देने का अधिकार भी नहीं था। यद्यपि यहाँ यह कहा जा सकता हैं कि बौद्धधर्म के समान ही जैनधर्म में भी तो चिरकाल की दीक्षित एवं वयोवृद्ध भिक्षुणी के लिए सद्य: दीक्षित भिक्षु वन्दनीय होता हैं, किन्तु मेरी दृष्टि में जैनधर्म में यह नियम बौद्धधर्म के प्रभाव अथवा इस देश की पुरूष प्रधान संस्कृति के कारण कालांतर में ही आया होगा। प्राचीनतम आगम आचारांग भिक्षु-भिक्षुणी के नियमों एवं उनके पारस्परिक सम्बन्धों के निर्देश तो करता हैं, किन्तु कही यह उल्लेख नहीं करता हैं कि चिरप्रव्रजित भिक्षुणी सद्य: दीक्षित भिक्षु को वंदन करे। परवर्ती आगम में भी मात्र ज्येष्ठ- कल्प का उल्लेख हैं। - ज्येष्ठ-कल्प का तात्पर्य है कि कनिष्ठ अपने से प्रव्रज्या में ज्येष्ठ को वंदन करे। यह टीकाकारों की अपनी कल्पना है कि उन्होने ज्येष्ठ कल्प को पुरूष ज्येष्ठ कल्प के रूप में व्याख्यायित किया। मूल-आगमों में ऐसी कोई भी व्यवस्था उपलब्ध नहीं है, जिसके आधार पर जैनधर्म में स्त्री को पुरूष की अपेक्षा निम्न माना गया हो। आगमों में स्त्री को न केवल मोक्ष की अधिकारी बताया गया अपितु उसे तीर्थंकर जैसे सर्वोच्च पद की भी अधिकारी घोषित किया गया है। ज्ञाताधर्मकथा में मल्ली का स्त्री तीर्थंकर के रूप में उल्लेख है। अत: हम स्पष्ट रूप से यह कह सकते हैं कि बौद्धधर्म की अपेक्षा जैनधर्म का दृष्टिकोण नारी के प्रति अधिक उदार था। बौद्धधर्म में नारी कभी भी बुद्ध नहीं बन सकती है, किन्तु जैनधर्म में चाहे अपवाद रूप में ही क्यों न हो, स्त्री तीर्थंकर हो सकती है। यद्यपि परवर्ती काल में जैनधर्म की दिगम्बर शाखा में, जो नारी को तीर्थंकरत्व एवं निर्वाण के अधिकार से वंचित किया गया था. वह उसके अचेलता पर अधिक बल देने के कारण हआ था। चूँकि सामाजिक स्थिति के कारण नारी नग्न नहीं रह सकती थी अत: दिगम्बर परम्परा ने उसे निर्वाण और तीर्थंकत्व के अयोग्य ही ठहरा दिया किन्तु यह एक परवर्ती ही घटना है। ईसा की सातवीं शती के पूर्व जैन साहित्य में ऐसे उल्लेख नहीं मिलते हैं। यद्यपि बौद्धधर्म में भिक्षुणी संघ अस्तित्व में आया और संघमित्रा जैसी भिक्षुणियों ने बौद्धधर्म के प्रसार में महत्वपूर्ण अवदान भी दिया किन्तु बौद्धधर्म का यह भिक्षुणी संघ चिरकाल तक अस्तित्व में नहीं रह सका। चाहे उसके कारण कुछ भी रहे हों। आज बौद्धधर्म विश्व के एक प्रमुख धर्म के रूप अपना अस्तित्व रखता हैं, किन्तु कुछ श्रामणेरियों को छोड़कर बौद्धधर्म में कही भी भिक्षुणी संघ की जैन धर्म में नारी की भूमिका :39 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50