Book Title: Jain Dharm me Nari ki Bhumika
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur

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Page 20
________________ न करने के प्रश्न को स्त्री-विवेक पर छोड़ दिया गया। जो स्त्रिया यह समझती थी कि वह अविवाहित रहकर अपनी साधना कर सकेंगी उन्हें बिना विवाह हुए ही दीक्षित होने का अधिकार था। विवाह संस्था जैनों के लिए ब्रह्मचर्य की साधना में सहायक होने के रूप में ही स्वीकार की गई। जैनों के लिए विवाह का अर्थ था अपनी वासना को संयमित करना। केवल उन्हीं लोगों के लिए विवाह संस्था में प्रवेश आवश्यक माना गया था जो स्वयं को पूर्णरूप से ब्रह्मचर्य का पालन करने में असमर्थ पाते हो अथवा विवाह के पूर्व पूर्ण ब्रह्मचर्य पालन का व्रत नहीं ले चुके हैं। अत: हम कह सकते हैं कि जैनों ने ब्रह्मचर्य की आंशिक साधना के अंग के रूप में विवाह संस्था को स्वीकार करके भी नारी की स्वतंत्र निर्णय शक्ति को मान्य करके उसकी गरिमा को खण्डित नहीं होने दिया। बहुपति और बहुपत्नी प्रथा विवाह संस्था के सन्दर्भ में एक महत्वपूर्ण प्रश्न बहुविवाह का भी है। इसके दो रूप हैं बहुपत्नी प्रथा और बहुपति प्रथा । यह स्पष्ट हैं कि द्रौपदी के एक अपवाद को छोड़कर हिन्दू और जैन दोनों ही परम्पराओं ने नारी के सम्बन्ध में एक-पति की अवधारणा को ही स्वीकार किया और बहुपति प्रथा को धार्मिक दृष्टि से अनुचित माना गया। जैनाचार्यों ने द्रापदी के बहुपति होने की अवधारणा को इस आधार पर औचित्यपूर्ण बताने का प्रयास किया है कि सुकमालिका आर्या के भव में उसने अपने तप के प्रताप से पाँच पति प्राप्त करने का निदान (निश्चय कर) लिया था। अत: इसे पूर्वकर्म का फल मानकर सन्तोष किया गया किन्तु दूसरी ओर पुरूष के सम्बन्ध में बहुपत्नी प्रथा की स्पष्ट अवधारणा आगमों और आगमिक व्याख्या साहित्य में मिलती ह। इनमें ऐसे अनेक सन्दर्भ हैं जहाँ पुरूषों को बहुविवाह करते दिखाया गया ह । दुःख तो यह ह कि उनकी इस प्रवत्ति की समालोचना भी नहीं की गई ह । अत: उस युग में जैनाचार्य इस सम्बन्ध में तटस्थ भाव रखते थे, यही कहा जा सकता है। क्योंकि किसी जैनाचार्य ने बहुविवाह को अच्छा कहा हो, ऐसा भी कोई सन्दर्भ नहीं मिलता है। उपासकदशा में श्रावक के स्ववत्नी संतोष व्रत के अतिचारों का उल्लेख मिलता है, उसमें 'परविवाहकरण को अतिचार या दोष माना गया ह । 'परविवाहकरण की व्याख्या में उसका एक अर्थ दूसरा विवाह करना बताय गया हैं, अत: हम इतना जैन धर्म में नारी की भूमिका :19 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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