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जयन्ती आदि ऐसी अनेक स्त्रियो के उल्लेख प्राप्त होते है जिन्होने आजीवन ब्रह्मचये पालन स्वीकार किया और विवाह अस्वीकार कर दिया। अगमिक व्याख्याओं में हमें विवाह के अनेक रूप उपलब्ध होते हैं। डॉ. जगदीशचन्द्र जैन ने जैन आगमों
और आगमिक व्याख्याओं में उपलब्ध विवाह के विविध रूपों का विवरण प्रस्तुत किया हैं यथा -स्वयंवर, माता-पिता द्वारा आयोजित विवाह, गन्धर्व विवाह (प्रेमविवाह), कन्या को बलपूर्वक ग्रहण करके विवाह करना, पारस्परिक आकर्षण या प्रेम के आधार पर विवाह, वर या कन्या की योग्यता देखकर विवाह, कन्या पक्ष को शुल्क देकर विवाह या भविष्यवाणी के आधार पर विवाह। किन्तु हमें आगम एवं आगमिक व्याख्याओं में कहीं भी ऐसा उल्लेख न मिल सका जहाँ जैनाचार्यों ने गुण-दोषों के आधार पर इनमें से किसी का समर्थन या निषेध किया हो या यह कहा हो कि यह विवाह पद्धति उचित है या अनुचित है। यद्यपि विवाह के सम्बन्ध में जैनों का अपना कोई स्वतंत्र दृष्किोण नहीं था पर इतना अवश्य माना जाता था कि यदि कोई ब्रह्मचर्य का पालन करने में असफल हो तो उसे विवाह-बन्धन मान लेना चाहिए। जहाँ तक स्वयं वर विधि का प्रश्न है निश्चित ही नारी-स्वातन्त्र्य की दृष्टि से यह विधि महत्वपूर्ण थी किन्तु जनसामान्य में जिस विधि का प्रचलन था वह माता-पिता के द्वारा आयोजित विधि ही थी। यद्यपि इस विधि में स्त्री और पुरूष दोनों की स्वतंत्रता खण्डित होती थी। जैनकथा साहित्य में ऐसे अनेक उल्लेख उपलब्ध हैं जहाँ बलपूर्वक अपहरण करके विवाह सम्पन्न हुआ इस विधि में नारी की स्वतंत्रता पूर्णतया खण्डित हो जाती थी, क्योंकि अपहरण करके विवह करने का अर्थ मात्र यह मानना नहीं है कि स्त्री को चयन की स्वतंत्रता ही नहीं है, अपितु यह तो उसे लूट की सम्पत्ति मानने जैसा है।
जहाँ तक आगमिक व्याख्याओं का प्रश्न है उनमें अधिकांश विवाह मातापिता के द्वारा आयोजित विवाह ही हैं केवल कुछ प्रसंगों में ही स्वयंवर एवं गन्धर्व विवाह के उल्लेख मिलते हैं जो आगम युग एवं पूर्व काल के हैं। माता-पिता के द्वारा आयोजित इस विवाह-विधि में स्त्री-पुरूषों की समकक्षता पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता है। यद्यपि यह सत्य है कि जैनाचार्यों ने विवाह-विधि के सम्बन्ध में गम्भीरता से चिन्तन नहीं किया किन्तु यह भी सत्य है कि उन्होंने स्त्री को गरिमाहीन बनाने का प्रयास भी नहीं किया। जहाँ हिन्दू-परम्परा में विवाह स्त्री के लिए बाध्यता थी। वहीं जैन परम्परा में ऐसा नहीं माना गया। प्राचीनकाल से लेकर आद्यावधि विवाह करने
जैन धर्म में नारी की भूमिका :18
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