________________
और रूत्री-पुरूष दोनों के पूजा सम्बन्धी सामग्री सहित अंकन यही सूचित करते हैं कि प्राचीन काल में जैन परम्परा में दोनों का स्थान रहा है।
आगमिक व्याख्याकाल में हम देखते हैं कि यद्यपि संघ प्रमुख के रूप में आचार्य का पद पुरूषों के अधिकार में था, किसी स्त्री के आचार्य होने का कोई उल्लेख नहीं है, किन्तु गणिनी, प्रवर्तिनी, गणावच्छेदिनी, अभिषेका आदि पद स्त्रियों को प्रदान किये जाते थे और वे अपने भिक्षुणी संघ की स्वतंत्र रूप से
आन्तरिक व्यवस्था देखती थीं। यद्यपि तरूणी भिक्षुणियों की सुरक्षा का दायित्व भिक्षु संघ को सौपा गया था, किन्तु सामान्यतया भिक्षुणियाँ अपनी सुरक्षा की व्यवस्था स्वयं रखती थी, क्योंकि रात्रि एवं पदयात्रा में भिक्षु और भिक्षुणियों का एक ही साथ रहना सामान्यतया वर्जित था। इस सुरक्षा के लिए भिक्षुणी संघ में प्रतिहारी आदि के पद भी निर्मित को सुरक्षित रखा गया -फिर भी तथ्यों के अवलोकन से यह निश्चित होता है कि आगमिक व्याख्याओं के युग में और उसके पश्चात् जैन परम्परा में भी स्त्री की अपेक्षा पुरूष को महत्ता दी जाने लगी थी।
नारी की स्वतंत्रता
नारी की स्वतंत्रता को लेकर प्रारम्भ में जैनधर्म का दृष्टिकोण उदार था। यौगलिक काल में स्त्री-पुरूष सहभागी होकर जीवन जीते थे। आगम-ग्रन्थ ज्ञाताधर्मकथा में राजा द्रुपद द्रोपदी से कहते हैं कि मेरे द्वारा विवाह किये जाने पर तुझे सुख-दुःख हो सकता हैं अत: अच्छा हो कि तू अपना वर स्वयं ही चुन । यहाँ ग्रथकार के ये विचार वैवाहिक जीवन के लिये नारी-स्वतन्त्र्य के समर्थक हैं। इसी पकार हम देखते हैं कि उपासकदशांग में महाशतक अपनी पत्नी रेवती के धार्मिक विश्वास, खान-पान और आचार-व्यवहार पर कोई जबरजस्ती नहीं करता है। जहाँ आनन्द आदि श्रावकों की पत्नियाँ अपने पति का अनुगमन करती हुई महावीर से उपासक व्रतों को ग्रहण करती हैं और धर्मसाधना के क्षेत्र में भी पति की सहभागी बनती हैं, वहीं रेवती अपने पति का अनुगमन नहीं करती हैं, मात्र यही नहीं, वह तो अपने मायके से मँगाकर मद्य-मांस का सेवन करती है, और महाशतक के पूर्ण साधनात्मक जीवन में विघ्न-बाधाएँ भी उपस्थित करती हैं। इससे ऐसा लगता है कि आगम युग तक नारी को अधिक स्वातन्त्र्य था किन्तु आगमिक व्याख्या साहित्य में हम पाते हैं कि पति या पत्नी अपने धार्मिक विश्वासों को एक दूसरे पर
जैन धर्म में नारी की भूमिका:14
For Private & Personal Use Only
Jain Education International
www.jainelibrary.org