Book Title: Jain Dharm Vishayak Prashnottara Author(s): Atmaramji Maharaj, Kulchandravijay Publisher: Divya Darshan Trust View full book textPage 8
________________ (५) मन को एकाग्र रखें अर्थात् संकल्प-विकल्प न करें | अथवा राजा इन पाँच राज्य-चिह्नों का त्याग करे - (१) मुकुट, (२) छत्र, (३) चामर, (४) तलवार, (५) पादुका-जूते । दश त्रिक तीन पदार्थों की जोड़ को त्रिक कहते हैं। ये त्रिक दस प्रकार से हैं - (१) निस्सिहि, (२) प्रदक्षिणा, (३) प्रणाम, (४) पूजा, (५) अवस्था, (६) दिशात्याग, (७) प्रमार्जना, (८) आलंबन, (९) मुद्रा और (१०) प्रणिधानत्रिक । निस्सिही त्रिक - मन्दिर में प्रवेश करते समय प्रथम दाहिना पाँव रखते हुए दर्शनपूजन आदि में चित्त की एकाग्रता के लिए (१) समस्त संसारी व्यापारों के निषेध रूप प्रथम निस्सिही, (२) गर्भद्वार में प्रवेश करते समय द्रव्यपूजा में एकचित्त बनने के लिए मन्दिर सम्बन्ध कार्यों के निषेध स्वरूप दूसरी निस्सिही और (३) चैत्यवंदनादि रूप भावपूजा में तल्लीन बनने के लिए द्रव्य-पूजा के त्याग रूप तीसरी निस्सिही का विधान है। प्रदक्षिणा त्रिक - तीन प्रदक्षिणाएँ दर्शन-ज्ञान-चारित्र की आराधना के लिए, अनादि चार गति रूप संसार-भ्रमण निवारण हेतु तथा मन्दिर में आशातनादि टालने के लिए निरीक्षण हेतु लगानी है। प्रणाम त्रिक - (१) मूलनायक भगवान के दर्शन होते ही सिर पर अञ्जलि रचते हुए 'नमो जिनाणं' बोले, इसे अञ्जलिबद्ध प्रणाम कहते हैं । (२) प्रदक्षिणा लगाने के बाद प्रभुसम्मुख स्तुति बोलते समय कमर से ऊपर के आधे भाग को झुकाना अर्धावनत प्रणाम है। (३) खमासमणा देते समय दो हाथ, दो घुटने और मस्तक इन पाँचों अंगों को भूमि पर एकत्रित करने को पंचांग प्रणिपात नाम का प्रणाम कहा जाता है | पूजा त्रिक - (१) जल, चन्दन, पुष्प, आभूषण आदि जो प्रभुजी के अंग पर चढ़ाया जावे उसे अंगपूजा कहते हैं । फल की अपेक्षा इसे विघ्ननाशिनी कहा है। (२) धूप, दीप, अक्षत, नैवेद्य, फल आदि प्रभुजी के सम्मुख रखे जाएँ, वह अग्रपूजा कहलाती है। फलतः इसे अभ्युदय-साधनी कहते हैं। (३) नृत्य, गीत, संगीत, चैत्यवंदन प्रमुख करना भावपूजा है। इसका फल मोक्ष-प्राप्ति है। अवस्था त्रिक - (१) पिण्डस्थ - जन्माभिषेक के समय चौंसठ इन्द्रों द्वारा अनुपम भक्ति, फिर भी प्रभु को अभिमान का लेश नहीं । राज्यावस्थामें राज्य-सुख के भोगकाल में तनिक भी आसक्ति नहीं । दीक्षा-स्वीकार के बाद श्रमणावस्था में परीषह और उपसर्ग आने पर भी निश्चलता रखना एवं घोर तप का करना । हे प्रभो ! ऐसी अवस्था मैं कब Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
1 ... 6 7 8 9 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 ... 130