Book Title: Jain Dharm Vikas Book 02 Ank 08 09
Author(s): Lakshmichand Premchand Shah
Publisher: Bhogilal Sankalchand Sheth

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Page 5
________________ u આદિનાથ ચરિત્ર तब बोला द्रढ़ धर्म सुजाना, अवधि ज्ञानसे मैं सब जाना। शांत होय सब सुनहु हवाला, धातकी नाम खंड एक वाळा ॥ ते खंड नंदी ग्राम सुहावा, तेहि पुर नागिल अति दुख पावा । महा दळिद्र मिहनत अति करता, फिरहीं भाग्य वस भूखे मरता ॥ नाग श्री हे जिसकी नारी, महा मूर्ख पति दुख देणारी। वेगवेग षढ कन्या जाइ, शाह रुप अति निन्दा दाइ ॥ बहुत अहार करे सब कोई, नागिल घर बरकत नहीं होई। नाग श्री पुनि गर्भा होई, तासे नागिलचिंतत होइ॥ कोन जन्म कर उपजा पापा, ते प्रभाव मन हो संतापा। कुलक्षणी कन्या सब होइ, तेहिसे यह मेरी गती होई॥ अबके जो कन्या हो जावे, त्याग भवन जाऊं मर जावे। इहि विधि चिन्ता नागिल करता, कलपत उदर हमेशा भरता ॥ नागिल घर पुनि कन्या जाइ, सुन नागिल सबहि छिटकाई। चला गया नागिल घर छोड़ी, ता नारी कलपत दुख दोड़ी। एक प्रसव दुख पा अति भारी, दुजोपति दुख पावत नाही। दुख दुख कन्या नाम न कीना, लोगतिनार्मा नाम धर दीना॥ नाग श्री नहीं प्रेम दुलारी, फिर भी कन्या हुइ तैयारी । एक समय की बात है, धनिक कुंवर के हाथ । मोदक को देखत भइ, लेवन दिल ललचाय ॥ पुनि माता ढिग हटकर लीना, क्रोध विवस माता कह दीना॥ जो तुमको मोदक प्रीय लागे, तो मन लाकर सुन हुँ अभागे। अंबर पर्वत पर तम जाओ, लकड़ी तोड़ बेंच कर लाओ। जली बात माता की सुनकर, रस्सीले चलदी भोजन कर। . . चली चली भूधर पर आई, केवली हुए तहां मुनिराइ ॥ करत महोत्सव देवन भारी, युगंधर मुनि महिमा उजियारी। ., आये देव सुरनर गंधर्वा, जय जय उचरत प्राणी सर्वा ॥ चकित होय देखन लगी, ज्ञान महोत्सव कार । पुनि भारी को पटक कर, आइ सभा मझार ॥ अपूर्ण.

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