Book Title: Jain Dharm Vikas Book 02 Ank 08 09
Author(s): Lakshmichand Premchand Shah
Publisher: Bhogilal Sankalchand Sheth

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Page 20
________________ २७० જનધર્મ વિકાસ स्वामी आत्मानु मुखादृष्टि से अपने आपके दोषों का पूर्ण दर्शन वह अन्वेषण फरने लगे, यद्यपि महान नैतिक सिद्धांतिक अनुसार स्वयं के दोष स्वयं नहिं दिख पड़ते और यही एक आलोच्य विषय हो गया था. कि मुझे केवल ज्ञान क्यों नहीं होता है। अये जैनों के धर्म उपदेशकों इस उदाहर को आत्मा में स्थाई रखकर और दिर्घ विचार करनेकि आवश्यकता है। जबसे छमस्थ काल का आरंभ हुवा तब से आप लोगोंने मन कल्पित रीता और रिवाजों का प्रचार किया। और साधु तान्डव का पूरा भाव भजकर के दिखलाया। यह अवर्णनीय है, इस छमस्थ काल में शिष्य करने कि और बढाने कि इच्छाने तो जैनधर्म को रशातल में भेज दिया है। निन्दा आदि दुर्गुणों ने पूरा स्थान जमा लिया है सारे जैन समाज को छिन भिन्न कर दिया है जो चारित्र का महान आदर्श था वह गौण और ग्लानि कर बना दिया है, यह आपका पहिला तान्डव है, दूसरा तान्डव सुनिये उस के पहले कान के मेल को दूर करके और शुद्ध भाव से हृदयगम कीजिये गा। साधु मन्डल में एक दूसरे के साथ कैसा व्यवहार हो रहा है. और परस्पर की निन्दा से महाव्रतों की दुकानें दिवाला आउट हो रही है। यह अति विचारणीय ताण्डव हैं, अब एक अपूर्व ताण्डव पाठकों को दिखाया जायगा। आज कल परस्पर जघन्य और साधारण प्रश्नों का जो शास्त्रार्थ हो रहा है, वह पूरी तबलची की सामता को धारण कर रहा है परस्पर एक दूसरे को मुर्ख कह देना यह तो साधारण मंगलाचरण हैं। तपस्या ने इन दुर्गुणों से मुखः मोड़कर अष्टापद पर रहना स्वीकार किया है, लाख मन ऊति करने पर भी यहां आना असंभव दिख पड़ता है, आशय यह है, कि पूर्व के समान इस समय के साधु समूह में पूरा अभाव दिख पड़ता है, जरा पूर्व के साधूओं की दीक्षा और संयम की पर्याय को देखो, और सोचो, फिर आगे कदम बढाओ। कि तुम्हारा अधःपतन इस समय कैसे हो रहा है, इसका कभी चोलपट्टे की आड़ में रहकर विचार किया था ? अजि पूर्वजों के नाम और उनके चरित्र वाख्यानों में कह कर एक नम्बर के पोपले मुंह वाले भक्तों को प्रसन्न कर देते हो. और टसी में अपने वाख्यान में इति श्री करके जो गुलच्छरे उड़ा रहे हो. यह कहां तक जैन समाज तुम्हारे इस नग्न तान्डव को देख करेगा. अब पाखन्ड को छोड़ कर करेमिभन्ते महासूत्र का पालन करके आत्मिक सुखः कि और जैन धर्म की विजयी घोषणा संसार में फर्हादो, यह लेख निज द्वेष से नहिं लिखा गया है। अपितु साधुत्व का यथार्थ स्वरूप प्राप्त करने के लिये लिखा गया है। अस्तु शान्ति.

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