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જૈનધર્મ વિકાસ.
सर्व संप्रदाय, सर्व मजहब, सर्व धर्म और सर्व पंथोने प्रकारान्तर से मूर्तिपूजा को महत्व देकर उसकी व्यापकता जग जाहिर कर दी है । कोइ गुप्तरूप से मूर्ति की उपासना करता है तो कोई प्रकट रूप में, कोई संकेतात्मकरूप से करता है तो कोई अन्यावलंबन से करता है, कोई प्रत्यक्ष उपासना करता है तो कोई परोक्ष उपासना करता है । तात्पर्य यह है कि उक्त सभी उपासनाओं में मूर्ति का स्थान सर्व प्रथम है । इसके बिना उपासना यथावस्थित रूप से कदापि नहीं हो सकती है सभी मजहबो ने मूर्ति को पर्यायान्तर से स्थान देकर उसकी महत्ता वृद्धि और व्यापकता सिद्वि में किंचित् भी संदेह नहीं रक्खा हैं । प्रथम तो मूर्ति को जो कि प्रभुकी आकृति विशेष का ज्ञान कराती है स्वीकार किये बिना उपासना नहीं हो सकती है यदि कोई यह कहने का दुस्साहस भी करे कि हम मूर्ति के बिना भी प्रभु की उपासना कर सकते हैं या करते हैं तो उसका यह कथन केवल वाङ्मात्र ही समझना चाहिये कारण प्रभु तो निरंजन निराकार है और निराकार तक पहुंचने के लिये साकारावलंबन की आवश्यकता रहा करती है । इसी उद्देश्य से उपासना के भी दो प्रकार बतलाये हैं-१ साकारोपासना २ निकारोपासना। निकारोपासना करने के लिये साकारोपासना की सहायता लेनी पड़ती है। यदि इसका अवलंबन न लिया जाय तो अमीष्ट सिद्धि असंभव नहीं तथापि दुस्साध्य अवश्य है । जो लोग साकारोपासना करते हुए भी निराकारोपासना की दुहाइ देने में किंचित् भी संकोच नहीं करते हैं वे वास्तव में निराकारो पासक न होकर साकारोपासक ही हैं । साकारापासना ही मूर्ति की उपासना है।
निराकार प्रभु और निर्गुणत्वाद् गुणानाम् के सिद्धान्तानुसार निराकार गुणों का ध्यान भी कैसे हो सकता है ? चर्मवक्षु वाले जीव तो इस उच्च तत्व तक तावत् नहीं पहुंच सकते यावत् शान चक्षु का विकास नही। प्रभु और उनके गुण दोनों ही निराकार हैं तथा गुण गुणो से सर्वथा भिन्न भी नहीं रह सकता है यह नाम का सर्व सम्मत सिद्धान्त है । जैसे रजत (चांदी) और शुक्लत्व (सफेदीपन) स्वर्ण (सोना) और पीतत्व (पीलापन) ये दोनों पृथक् २ नहीं रह सकते है उसी प्रकार गुणी से गुण भी पृथक् नहीं है । ऐसे ही प्रभु और उनके गुण भी अलग २ कैसे रहसकेंगे ? केवल गुणों की उपासना भी नहीं की जा सकती है क्योंकि गुण गुणी से संबंधित है । यदि यह माना जाय कि हम मनमें ही प्रभुकी कल्पना करके उनकी उपासना कर सकते हैं तो मूर्ति को मानने की क्या आवश्यकता है ? किंतु यह कथन ऐसा ही है जैसा कि अपनी माता को बंध्या बतलाना असंगत है । कारण मन में प्रभु की कल्पना करना यह भी तो एक एक प्रकार की मूर्ति की उपासना ही है । यदि मन में किसी भी प्रकार से प्रभु को आकृति की कल्पना न कर उपासना की जाय तो यह संभव हो सकता है कि वह उपासना निराकारोपासना को ही सूचिका होगी। किंतु साकारोपासना करते हुए भी मूर्ति को स्वीकार न करना "गुड़खाना और