Book Title: Jain Darshan aur Adhunik Vigyan
Author(s): Nagrajmuni
Publisher: Atmaram and Sons

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Page 22
________________ स्याद्वाद और सापेक्षवाद है ? मैंने अपनी बाँह को इस प्रकार से टेढ़ी करके उसे दिखाया-मोड़दार इसे कहते हैं । तब उसने कहा-प्रच्छा अब मैं समझ गया दूध क्या है ? इस कहानी को सुन लेने के बाद उस भद्र महिला ने कहा- मुझे सापेक्षवाद क्या है अब यह जानने की कोई दिलचस्पी नहीं रही है।" सापेक्षवाद की कठिनता के इन कुछ उदाहरणों की तरह सरलता के उदाहरणों की भी कमी नहीं है पर यहाँ मात्र एक ही उदाहरण पर्याप्त होगा । सापेक्षवाद के आचार्य प्रो० अलबर्ट आइंस्टीन से उनकी पत्नी ने कहा-"मैं सापेक्षवाद कैसा है कैसे बतलाऊँ ?" आईस्टीन ने एक दृष्टान्त में जवाब दिया--''जब एक मनुष्य एक सुन्दर लड़की से बात करता है तो उसे एक घण्टा एक मिनट जैसा लगता है। उसे ही एक गर्म चल्हे पर बैठने दो तो उसे एक मिनट एक घंटे के बराबर लगने लगेगा--यही सापेक्षवाद है ।" इसीलिये कहा गया है कि स्याद्वाद और सापेक्षवाद कठिन भी है और सहज भी। व्यावहारिक सत्य व तात्त्विक सत्य स्याद्वाद में नयों की बहुमुखी विवक्षा है; पर यहाँ केवल व्यवहार-नय व निश्चयनय को ही लेते हैं । इनकी व्याख्या करते हुए प्राचार्यों ने कहा है २ -"निश्चय-नय वस्तु के तात्त्विक (वास्तविक) अर्थ का प्रतिपादन करता है और व्यवहार-नय केवल लोक-व्यवहार का ।” एक बार गोतम स्वामी ने भगवान् श्री महावीर से पूछा"भगवन् ! 3 फारिणतःप्रवाही गुड में कितने वर्ण, गन्ध, रस व स्पर्श होते हैं ?" भगवान् महावीर ने कहा-"मैं इन प्रश्नों का उत्तर दो नयों से देता हूँ । व्यवहार-नय की अपेक्षा से तो वह मधुर कहा जाता है पर निश्चय-नय की अपेक्षा से उसमें ५ वर्ण, २ गन्ध, ५ रस व ८ स्पर्श हैं।" अगला प्रश्न गोतम स्वामी ने किया-"प्रभो ! 'भ्रमर 1. Cosmology Old and New, p. 197. २. तत्त्वार्थं निश्चयो वक्ति व्यवहारश्च जनोदितम् । -द्रव्यानुयोगतर्कणा ८२३ । ३. फारिणयगुलेणं भन्ते! कइ वणे, कइ गन्धे, कइ रसे, कई फासे पण्णत्ते ? गोयमा ! एत्थणं दो नया भवन्ति तं निच्छइएणएय, वावहारियणएय। वावहारियणयस्स गोड्डे फारिणयगुले, निच्छइयणयस्य पंचवण्णे, दुगन्धे, पंचरसे, अठ फासे । . -भगवती १८-६ । ४. भमरेणंभन्ते ! कइवण्णे पुच्छा ? गोयमा ! एत्थणं दो नया भवति तंजहाणिच्छइयणएय, वावहारियणएय। वावहारियणयस्स कालए भमरे, णिच्छइयणयस्स पंचवण्णे जाव अठ फासे । -भगवती १८-६॥ Jain Education International 2010_04 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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