Book Title: Jain Darshan aur Adhunik Vigyan
Author(s): Nagrajmuni
Publisher: Atmaram and Sons

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Page 32
________________ स्याद्वाद और सापेक्षवाद २३ उनकी सत्ता से इन्कार कर दें । सापेक्षता परमार्थ नामधारी किसी भी पदार्थ को सिद्ध नहीं होने देती, किन्तु सापेक्षता द्वारा सत्ता से इन्कार करवाना तो उनकी सीमा से बाहर जाना है । सापेक्षता प्राखिर माननी क्यों पड़ती है ? इसीलिये तो कि वस्तु सत्ता हमें ऐसा मानने के लिए मजबूर करती है ।" इस प्रकार सापेक्षवाद स्वाद्वाद की अपेक्षावादिता को पूर्णतया पुष्ट करता है । 9 स्याद्वाद स्वयं भी अपने आप में इतना पुष्ट है कि डॉ० राधाकृष्णन् का तर्क उसे हतप्रभ नहीं कर सकता । स्याद्वाद भी तो यह मानकर चलता है कि निरपेक्ष सत्य विश्व में कुछ है ही नहीं तो हमारे मन में उसका मोह क्यों उठता है ? धर्मकीर्ति ने कहा है, "यदि पदार्थों को स्वयं यह प्रभीष्ट है तो हम उन्हें निरपेक्ष बताने वाले कौन होते हैं ?" सापेक्ष सत्य के विषय में जो सन्देहशीलता विचारों को लगती है उसका एक कारण यह है कि सापेक्ष सत्य को पूर्ण सत्य व वास्तविक सत्य से परे सोच लिया जाता है, किन्तु वस्तुतः सापेक्ष सत्य उनसे भिन्न नहीं है । हर एक व्यक्ति सरलता से समझ सकता है कि नारंगी छोटी है या बड़ी । यहाँ वास्तविक और पूर्ण सत्य यही है कि वह छोटी भी है और बड़ी भी, अपने बड़े व छोटे पदार्थों की अपेक्षा से । यहाँ कोई यह कहे कि यह तो आपेक्षिक या अधूरा सत्य है तो वह स्वयं बताये कि यहाँ निरपेक्ष या पूर्ण सत्य क्या है ? कुछ एक जैन विचारकों ने डॉ० राधाकृष्णन् की समालोचना के साथ संगति बैठाने के लिए स्याद्वाद को केवल लोक व्यवहार तक सीमित माना है और जैन दर्शन में प्रतिपादित निश्चय नय को पूर्ण सत्य ( absolute truth) बताने का प्रयत्न किया है । किन्तु यह यथार्थ नहीं कि स्याद्वाद केवल लोक व्यवहार मात्र है, क्योंकि 'स्यादस्त्येव सर्वमिति' और 'स्यान्नास्त्येव सर्वमिति' अर्थात् ' स्वद्रव्यक्षेत्र काल भाव की अपेक्षा से सब कुछ है ही' और 'परद्रव्यक्षेत्र काल भाव की अपेक्षा से सब कुछ नहीं ही है' यह जो स्याद्वाद का हृदय सप्त भंगी तत्त्व है उसका विषय लोक व्यवहार ही नहीं अपितु द्रव्य मात्र है । इसीलिए तो आचार्यों ने कहा है, 'दीप से लेकर व्योम तक वस्तु मात्र स्याद्वाद की मुद्रा से अंकित है ।" केवली ( सर्वज्ञ ) व निश्चय नय के द्वारा बताया गया तत्त्व भी कहने भर को ही निरपेक्ष है क्योंकि 'स्यादस्ति स्यान्नास्ति से १. विश्व की रूपरेखा, सापेक्षवाद पृ० ५७-५८ । २. यदिदं स्वयमर्थानां रोचते तत्र के वयम् ? - प्रमाणवार्तिक २-२०६ । ३. स्याद्वादमंजरी — जगदीशचन्द्र एम० ए० द्वारा अनूदित पृ० २५ । ४. आदीपमाव्योम समस्वभावं स्याद्वादमुद्रानतिभेदि वस्तु ।' Jain Education International 2010_04 — अन्ययोगव्यवच्छेदिका श्लो० ५ । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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