Book Title: Jain Darshan aur Adhunik Vigyan
Author(s): Nagrajmuni
Publisher: Atmaram and Sons

View full book text
Previous | Next

Page 101
________________ १२ जैन दर्शन और आधुनिक विज्ञान प्रकरण में यही प्रांकना है कि जड़ के आन्तरिक संघर्ष के परिणामस्वरूप होने वाले गुणात्मक परिवर्तन से चेतना का उदय होता है ; मार्क्सवाद का यह निर्भीक कयन तर्क व यथार्थता की कसौटी पर कहाँ तक खरा उतरता है । विरोधी समागम (Unity of opposites)-दो विरोधी पदार्थों का मिलन ही विरोधी समागम नहीं किन्तु मार्क्स के कथनानुसार एक ही पदार्थ में दो विरोधी गुणों (स्वभावों) की अन्तर्व्यापकता विरोधी समागम है। वे दो विरोध एक ही समय एक ही वस्तु में अभिन्न होकर रहते हैं। इस विरोधी समागमता को मार्क्सवादी अपने दर्शन की अपूर्व देन मानते हैं । विभिन्न ताकिकों के द्वारा यह तर्क उठाने पर कि एक वस्तु में दो विरोधी स्वभाव नहीं ठहरते वे बहुत से व्यावहारिक उदाहरणों द्वारा अपने अभिमत तत्व का समर्थन करते हैं। वे हीगल के तर्कशास्त्र से कुछ उदाहरण लेते हैं, जैसे-"जो कर्जदार के लिये ऋण (देन) है वही महाजन के लिए धन (पावना) है। हमारे लिए जो पूर्व का रास्ता है दूसरे के लिए वही पश्चिम का भी रास्ता है।" प्लेटो की निम्न युक्ति को वे अपने समर्थन में प्रयुक्त करते हैं-"हमारी कुर्सी का काठ कड़ा है, कड़ा न होता तो हमारे बोझ को कैसे संभालता ? और काठ नरम है, यदि नरम न होता तो कुल्हाड़ा उसे कैसे काट सकता ? इसलिये काठ कड़ा और नरम दोनों है।" विरोधी समागम की पूर्व विहित व्याख्या को समझकर तो यह मानना होगा कि बहुत सारी बुराइयों में कुछ अच्छाइयाँ भी जीवित रहती हैं। मार्स अपने अगले कदम गुणात्मक परिवर्तन में चाहे कितना ही गलत बह गया हो किन्तु विरोधी समागमता तक को उसकी पहुँच अवास्तविक नहीं कही जा सकती। मार्स का विरोधी समागम किसी भी दार्शनिक को स्याद्वाद की याद दिलाये बिना न रहेगा । अन्य दर्शन चाहे इसमें एकमत न हों पर जैन दर्शन इसका समर्थन अवश्य करता है कि एक ही वस्तु में अपेक्षा भेद से विभिन्न विरोधी स्वभावों की स्थिति है । जैन दर्शन का स्याद्वाद कहता है कि अस्ति (है) और नास्ति (नहीं है) धर्म एक ही वस्तु के सहभावी धर्म हैं । स्वद्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव की अपेक्षा से 'स्यादस्ति' और पर द्रव्यक्षेत्र, काल, भाव की दृष्टि से 'स्यान्नास्ति' प्रत्येक वस्तु में सह स्थिति रखते हैं। जैन दर्शन नित्यअनित्य, एक-अनेक, वाच्य-अवाच्य आदि दर्शन-जगत् के गम्भीरतम प्रश्नों को स्याद्वाद के द्वारा ही हल करता है। माक्र्सवादियों की विरोधी समागमता के उदाहरण ऐसे लगते हैं जैसे बड़ी खोज से वे पाये गये हैं,। स्याहादियों की विवेचना में तथा प्रकार के उदाहरणों की भरमार है। वहाँ ऐसी कोई वस्तु है ही नहीं जो विरोधी धर्मों की सहस्थिति का उदाहरण न बनती हो । एक रेखा छोटी की अपेक्षा बड़ी व अपने से बड़ी की अपेक्षा छोटी है । एक व्यक्ति बेटा भी है और बाप भी । अपने बेटे की अपेक्षा से वह Jain Education International 2010_04 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140 141 142 143 144 145 146 147 148 149 150 151 152 153 154