Book Title: Jain Darshan aur Adhunik Vigyan
Author(s): Nagrajmuni
Publisher: Atmaram and Sons

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Page 105
________________ जैन दर्शन और प्राधुनिक विज्ञान ४-चार पहलवान एक पत्थर उठाना चाहते हैं। वे सारी शक्ति लगाकर हार गये पर वह नहीं उठा । उस वक्त एक लड़का उधर से आया। उसने अपनी थोड़ी सी ताकत लगाई और पत्थर उठ गया। कारण कि चार पहलवानों की सारी शक्ति के बाद भी थोड़ा भार और बच रहा था। उसके हाथ लगते ही भार व शक्ति का संतुलन हो गया। ___इस प्रकार के और भी उदाहरण प्रस्तुत किये जाते हैं और उससे भी और अधिक प्रस्तुत किये जा सकते हैं । भारतीय दार्शनिकों का विरोध परिवर्तन से नहीं । सृष्टि का प्रति समय होने वाला परिवर्तन तो सर्वमान्य सिद्धान्त है। उस परिवर्तन के नियमों को हम देश, काल, सदृश, विसदृश आदि की विभिन्न मर्यादात्रों में देखते ही हैं। परिवर्तन केवल परिमाण सापेक्ष ही हो ऐसी बात नहीं है । भारतीय आयुर्वेद वेत्ताओं ने भी बताया है कि मधु और घृत वैसे दोनों ही प्राणपोषक द्रव्य हैं पर वे ही समान मात्रा में परस्पर मिल कर जहर हो जाते हैं । मैं समझता हूँ कि गुणात्मक परिवर्तन का यह उदाहरण ऑक्सीजन व हाइड्रोजन के उदाहरण से भी कहीं अधिक चुस्त है। वहाँ प्राणपीड़क. और प्राणपोषक मिलकर प्राणपोषक बनते हैं ; यहाँ प्राणपोषक ही दोनों द्रव्य परिमाण व मात्रा के नियम से प्राणनाशक हो जाते हैं। भारतीय ज्ञान-धारा में भी तथा प्रकार के परिवर्तनमूलक उदाहरणों की कमी नहीं है। भारतीय दार्शनिकों का विरोध सहज व संयोग वियोगात्मक परिवर्तन में नहीं, उनका विरोध तो असद् की उत्पत्ति में है । द्वन्द्वात्मक भौतिकवादी चाहे यह कहते रहें कि गुणात्मक परिवर्तन हम उसे ही कहते हैं जहाँ असद् पैदा होता है, पर भारतीय दार्शनिकों ने तो यह बात कब ही सिद्ध करके छोड़ दी है कि सारे परिवर्तन अनन्त धर्मात्मक वस्तु के ही सहज धर्म हैं, जिनके उत्पाद व नाश देश, काल आदि नाना अपेक्षाओं पर निर्भर हैं । चैतन्य जैसी वस्तु जड़धर्मा न कभी हुई, न कभी हो सकती है। जड़ से चैतन्य पैदा होने की बात अरूप शन्य से घटादि सरूप पदार्थ के पैदा होने की-सी बात है । अरूप और सरूप का, जड़ और चैतन्य का प्रात्यन्तिक विरोध है। प्रतिषेध का प्रतिषेध-द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद के इस रचना कार्य की तीसरी सीढ़ी प्रतिषेध का प्रतिषेध है। इसकी परिभाषा विषय के प्रारम्भ में ही बता दी गई है जो आत्मा के सम्बन्ध में गुणात्मक परिवर्तन की तरह ही अयथार्थ है। उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य की त्रिपदी के समझने वालों के लिये आत्मोत्पाद के विषय को लेकर द्वन्द्वात्मक त्रिपुटी बहुत साधारण बात है। समाज, राजनीति, अर्थ-व्यवस्था आदि विषयक परिवर्तनशीलता को उक्त त्रिपुटी के नियमों से प्राबद्ध करने का प्रयत्न केवल मार्क्सवाद का अभिमत प्राग्रह ही माना जा सकता है। मार्क्सवाद की ओर आज की पीढ़ी का बढ़ता हुमा आकर्षण उसकी दार्शनिक यथार्थता का Jain Education International 2010_04 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org:

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