Book Title: Jain Darshan aur Adhunik Vigyan
Author(s): Nagrajmuni
Publisher: Atmaram and Sons

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Page 125
________________ जैन दर्शन और प्राधुनिक विज्ञान सारांश यह हुआ कि पृथ्वी को स्थिर मान कर और सूर्य को चर मानकर चलने में कुछ गरिणत सम्बन्धी कठिनाइयाँ पैदा होती हैं और सूर्य को स्थिर व पृथ्वी को चर मान लेने में कुछ गणित सम्बन्धी सुविधायें मिलती हैं। भू - भ्रमरण पर जो बल दिया जा रहा है वह गणितज्ञों का सुविधावाद है । गणित में रस लेने वाले समझते हैं कि प्राचीन ग्रह कक्षाओंों में और नूतन ग्रह कक्षाओं में इस सम्बन्ध को लेकर कोई अधिक उथल-पुथल नहीं हुई है । भारतीय व अभारतीय प्राचीन व्यवस्था में पृथ्वी केन्द्र है और चन्द्रमा, बुध, शुक्र, सूर्य, मंगल बृहस्पति तथा शनि क्रमशः अपनी ग्रपनी कक्षा पर घूमते हैं । ११६ चन्द्रमा Jain Education International 2010_04 शक मंगल शनि प्राचीन गणिताचार्य प्रायः सभी इस अभिमत की एक स्वर से पुष्टि करते हैं ।. and give a correct description of the motion but the Copernicus is far the simpler. Around a fixed earth the sun and moon describe almost circular paths but the paths of sun's planets and of their satellites are complex curly lines difficult for the mind to grasp and onward to deal with in calculation while around a fixed sun the more important paths are almost circular. -Relativity and Commonsense by Denton. १. वराहमिहिर – चन्द्रादूर्ध्वबुधसित र विकुजजीवार्कजास्ततो भानि । प्राग्गतयस्तुल्यरूपा जवाग्रहास्तु सर्वे स्वमंडलगाः || -पं० प्र० १३, श्लोक २६ । लल्लाचार्य – चन्द्र, ज्ञ, भार्गव, दिनेश, कुजार्य सौरिभानिक्षिते क्रम उर्ध्वगतिस्थितानि । - शि० वृ० मध्यमाधिकारी श्लोक १२ । भास्कराचार्य -- भूमेः पिण्डः शशांकज्ञ कवि रवि कुजेज्याकि नक्षत्रकक्षा । - सिद्धान्त शिरोमणि गोलाध्याय भुवनकोष २ । For Private & Personal Use Only वृहस्पति www.jainelibrary.org

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