Book Title: Jain Darshan aur Adhunik Vigyan
Author(s): Nagrajmuni
Publisher: Atmaram and Sons

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Page 134
________________ पृथ्वी : एक रहस्य १२५ सैकड़ों वर्ष पूर्व बना था । वंश परम्परा शाश्वत नहीं होती व मनुष्य की शक्ति अधूरी है नहीं तो स्यात् वह मकान भी भौतिक संसार का एक शाश्वत संस्थान कहलाता । प्रकृति स्वयं शाश्वत है। उसके हाथ दुर्बल नहीं हैं। उसके उपादान की कमी नहीं है। इसलिये उसके चाहे हुए संस्थान शाश्वत स्थिर रह जाते हैं । दूसरा उदाहरण गाँव का है। मनुष्यों और घरों का समुदाय गाँव व नगर है। सौ व कुछ अधिक वर्षों के पश्चात उसके सारे वासी बदल जाते हैं । हजारों वर्षों के पश्चात् सारे मकान भी, पर वह वही नगर कहलाता है। आज भी ऐसे नगर हैं जिनका हजारों वर्षों का धारावाही इतिहास है। हो सकता है कुछ ऐसे भी नगर हों जिनके नाम, संकृति, छोटेपन व बड़ेपन के परिवर्तन हो जाने पर भी उनका स्थानिक व सामुदायिक अस्तित्व मानव जाति का ही सहभावी हो। उसे हम उस प्रकार से न भी पहचाने पर प्रकृति के साम्राज्य में यह असम्भव नहीं है। प्रकृति का यह कार्य बुद्धिगम्य है। इस प्रकार जैसे नागरिक जन्मते हैं, मरते हैं, नगर शाश्वत बना रहता है। वैसे ही उक्त प्रकार के भौतिक (पौद्गलिक) संस्थानों में भी प्राकृतिक नियम से परमाणु मरते रहते हैं पर उसका सांस्थानिक स्वरूप सार्वकालिक बना रहता है । प्रकृति के ऐसे प्रतीक हैंसूर्य, चन्द्र, आदि ज्योति मंडल तथा नाना पृथ्वियाँ, जिनमें एक हमारी भी है, और उन पर रहे कुछ समुद्र व कुछ पर्वत । अस्तु पृथ्वी की उत्पत्ति व विनाश के सम्बन्ध में उक्त दृष्टिकोण जैन दर्शन ने आज से सहस्रों वर्ष पूर्व उपस्थित किया है जो इस सम्बन्ध को दार्शनिक व वैज्ञानिक समस्त धारणाओं से आज भी आगे है। प्रश्न प्रत्येक निर्णय के इर्द-गिर्द रहा ही करते हैं; तब भी लगता है कि आज के बुद्धिवादी इस मार्ग से ही इस सम्बन्ध में सत्य के अधिक समीप पहुँच सकते हैं। कालचक्र पृथ्वी की रचना के सम्बन्ध में पुरातत्त्ववेत्ता व भूगर्भ शास्त्री पर्वत, खान व भूगर्भ की रासायनिक प्रक्रियाओं के यथार्थ प्रमाणों से उसकी उत्पत्ति और विनाश की जो कल्पना करते हैं; जैन पदार्थ-विज्ञान के अनुसार उसकी कुछ संगति अवसर्पिणी और उत्सर्पिणी के कालक्रम के साथ बैठ सकती है। अवसर्पिणी और उत्सपिणी का अर्थ है-ह्रास व विकास का एक सुदीर्घ कालचक्र । यह कालचक्र संख्यातीत वर्षों में पूरा होता है । उत्सर्पिणी के आधे कालचक्र में पृथ्वी की सारी प्रक्रियायें क्रमशः भव्यनिर्माण (विकास) की ओर बढ़ती हैं और अवसर्पिणी के आधे कालचक्र में क्रमशः ध्वंस (ह्रास) की ओर । पाने वाली अवपिणी के अन्त तक जो होने वाला है उसका वर्णन शास्त्रों में इस प्रकार किया गया है-"उस समय दुःख से लोगों में हाहाकार होगा। अत्यन्त कठोर स्पर्श वाला, मलिन, धूलियुक्त पवन चलेगा। वह दुःसह व भय Jain Education International 2010_04 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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