Book Title: Jain Darshan aur Adhunik Vigyan
Author(s): Nagrajmuni
Publisher: Atmaram and Sons

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Page 154
________________ दैनिक नवभारत टाइम्स की सम्मति में जैन-दर्शन और आधुनिक विज्ञान ..भारतवर्ष में जितना ऋषि-साहित्य पूजा गया उतना अन्य कोई साहित्य नहीं पूजा गया / आज भी समाज में ऋषि-साहित्य का स्थान सर्वोन्नत है। उसमें आत्मतत्त्व का ही नहीं किन्तु भौतिक-तत्त्व का भी सर्वांगीण विश्लेषण मिलता है / आश्चर्य तो इस बात का है कि ऋषियों के पास कोई प्रयोगशाला, वेधशाला व दूरवीक्षक यन्त्र नहीं थे तो भी उन्होंने अपने ज्ञानालोक से ब्रह्माण्ड के अणु-अणु को परखा और सूक्ष्मतम तत्त्वों को खोज निकाला / उनका लक्ष्य सत्य को पाना और उस से हरेक को परिचित कराना था। इस कार्य में वे सफल हुए इसीलिए भारतीय जनता उनकी ऋणी है। विज्ञान का लक्ष्य भी सत्य क्या है, इसकी खोज करना है, परन्तु उसके . साधन ऋषियों से भिन्न हैं / वह प्रयोगशालाओं, वेधशालाओं व दूरवीक्षक यन्त्रों से प्रसिद्ध बात को सत्य की कोटि में नहीं लेता / पर प्रयोगशाला का विषय तो जड़पदार्थ ही हो सकता है, चेतन नहीं। उसमें परमाणु के नाना स्वरूपों को पकड़ा जा सकता है, परमात्मा को नहीं / अस्तु, कुछ भी हो, साधन की विभिन्नता में हम साध्य की एकरूपता को नहीं भुला सकते / दर्शन और विज्ञान चाहे दो विभिन्न मार्गों के पथिक हैं पर उनका परम-साध्य सत्य को पहचानना है और वह एक है / बहुत दिनों तक यह एक विचारधारा थी कि दर्शन और विज्ञान में कोई मेल व समझौता नहीं हो सकता, वे पूर्व व पश्चिम की तरह सर्वथा भिन्न हैं, किन्तु अब विज्ञान में होने वाले नये उन्मेषों से क्रमशः वह खाई पटती जा रही है। मुनि श्री नगराजजी ने अपनी इस पुस्तक में भारतवर्ष के एक प्राचीन और वैज्ञानिक दर्शन-जैन दर्शन और आधुनिक विज्ञान का इस दृष्टि से बहुत ही सुन्दर व समीक्षात्मक विवेचन किया है / पुस्तक सात अध्यायों में विभक्त है। सातों ही अध्याय दर्शन और विज्ञान की तलस्पर्शी गहराई की ओर संकेत करते हैं। दर्शन और विज्ञान ये दोनों ही विषय साधारण व्यक्ति के लिए उलझन भरे होते हैं और जब ये साथ-साथ चलते हैं तो दुरूहता का कहना ही क्या ? पर यह पुस्तक इसका अपवाद है। मुनि श्री ने भाषा की सरलता और सरसता में विषय की कठिनता को इस प्रकार समाहित कर लिया है कि पाठक स्वतः एकरस हो जाता है। मुनि श्री नगराजजी जैन श्वेताम्बर तेरापन्थ परम्परा के मुनि हैं। संघीय व्यवस्था के अनुसार कोई भी तेरापन्थी साधु उपाधि ग्रहण नहीं करते / यदि ऐसा नहीं होता तो उनके नाम के साथ अब तक अनेकों उपाधियाँ जुड़ी होतीं। अ पुस्तक संग्रहणीय है / छपाई व सफाई के लिए प्रकाशक धन्यवाद के पात्र हैं। आत्माराम एण्ड संस, दिल्ली-६

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