Book Title: Jain Darshan aur Adhunik Vigyan
Author(s): Nagrajmuni
Publisher: Atmaram and Sons

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Page 116
________________ सापेक्षवाद के अनुसार भू-भ्रमण केवल सुविधावाद १०७ मण्डलों में चलता है, जिसमें १८२ मण्डलों में सूर्य दो बार चलता है और प्रथम व अन्तिम मण्डलों पर एक-एक बार चलता है ।" भगवती सूत्र की वृत्ति में बताया गया है - " जैसे-जैसे सूर्य आगे बढ़ता है पिछले देशों में रात्रि होती जाती है और आगे वाले देशों में दिन । इस प्रकार देशभेद के कारण उदयास्त का काल-भेद होता है ।" श्री मण्डल प्रकरण में तो सूर्य की गति व क्षेत्र-भेद के कारण जो काल भेद होता है उसे और भी स्पष्ट कर दिया गया है । " सूर्योदय के प्रथम प्रहर से लेकर रात्रि के चतुर्थ प्रहर तक का समस्त समय मेरु पर्वत की चारों ओर पृथक्-पृथक् क्षेत्रों में एक साथ उपलब्ध होता है । जैसे - भरत क्षेत्र में जिस स्थान पर सूर्य उदित होता है उससे दूर तर पिछले लोकों के लिये वह अस्तकाल है और उस उदय स्थान के अधस्तन लोकों के लिये उस समय मध्याह्न काल है । ऐसे किन्हीं लोकों के लिये प्रथम प्रहर, किन्हीं के लिये द्वितीय प्रहर, किन्हीं के लिये मध्य रात्रि और किन्हीं के लिये संध्या आदि अष्ट प्रहर सम्बन्धी काल एक साथ मिलता है ।" वेद अथर्ववेद में कहा गया है - "सूर्य द्युलोक और पृथ्वी में चारों ओर घूमता है । इसी प्रकार अथर्ववेद के अन्य स्थानों पर सूर्य को घूमते हुए रात - दिवस का विभा १. जह जह समये पुरओ संचरई भक्खरो गगणे । तह तह इयोवि नियमा जायइ रयणीइ भावत्थो || १ || एवं च सइ नराणं उदयत्थमरणाई होति नियमाई । सइ देश काल भेए कस्सइ किंचिवि दीस्सए नियमा ||२|| - भगवती वृति श० ५, उ० १ । २. पढमपहराइ काला जम्बूदीवम्मि दोसु पासेसु । लब्भंतिएग समयं तहेव सव्वत्थ नर लोए ॥ ६५ ॥ प्रथम प्रहरादिका उदयकालादारभ्य रात्रेश्चतुर्थ यामान्तं कालं यावन्मेरोः समन्तादहोरात्रस्य सर्वे कालाः समकालं जम्बूद्वीपे पृथग् - पृकम् क्षेत्रे लभ्यन्ते । भावना यथा भारते यतः स्थानात् सूर्य उदेति तत्पाश्चात्यानां दूरतराणां लोकानामस्तकालः । उदयस्थानादधोवासिनां जनानां मध्याह्न : एवं केषाञ्चित् द्वितीय प्रहरः केषाञ्चित् तृतीय प्रहरः क्वचिन्मध्यरात्रः क्वचित्संध्या, एवं विचारण्याप्टप्रहरसम्बन्धी कालः समकं प्राप्यते । तथैव नरलोके सर्वत्र जम्बूद्वीपगतमेरोः समन्तात् सूर्यप्रमाणे नाप्टप्रहर काल सम्भावनं चिन्त्यम् । - श्री मंडल प्रकरण टीका । ३. यत्र मे द्यावापृथ्वी सद्यः पर्येतिसूर्यः —अथर्ववेद । Jain Education International 2010_04 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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