Book Title: Jain Darshan aur Adhunik Vigyan
Author(s): Nagrajmuni
Publisher: Atmaram and Sons

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Page 103
________________ जैन दर्शन और आधुनिक विज्ञान है वहाँ वैज्ञानिक भौतिकवाद जड़ तत्त्वों के संघर्ष में। नास्तिकों के सामने जब "नाs सद् उत्पद्यते” का सिद्धान्त एक दुरूह चट्टान बनकर खड़ा हो गया तो द्वन्द्वात्मक भौतिकवादियों ने उससे बच निकलने के लिए गुणात्मक परिवर्तन के नाप से असद् उत्पत्ति का असफल मार्ग निकाला। उदाहरण गुणात्मक परिवर्तन दूसरे शब्दों में असद् की उत्पत्ति को सिद्ध करने के लिए द्वन्द्वात्मक भौतिकवादी बहुत से उदाहरण प्रस्तुत करते हैं। यह रोचक विषय होगा कि एक-एक करके कुछ उदाहरणों को यहाँ उपस्थित कर उनकी एक तटस्थ मीमांसा की जाये। १-प्रॉक्सीजन एक प्राण-पोषक गैस है और हाइड्रोजन प्राणनाशक । ये एक दूसरे के स्पष्ट विरोधी पदार्थ हैं ; किन्तु दोनों के मर्यादित सम्मिश्रण से जल जैसे जीवनोपयोगी तत्त्व का निर्माण हो जाता है । यह हमारा गुणात्मक परिवर्तन व प्रतिषेध का प्रतिषेध है । उक्त उदाहरण पर यदि हम गहराई से सोचते हैं तो स्पष्ट लगता है कि प्रथम . तो यह उदाहरण गुणात्मक परिवर्तन का बनता ही नहीं, क्योंकि उसमें दो विरोधी स्वभावों से तीसरे नये गुण का पैदा होना अनिवार्य है। यहाँ प्रॉक्सीजन को प्राण पोषक तत्त्व माना गया है और हाइड्रोजन के मिलने पर प्राणपोषक जल का निर्माण हुपा है अर्थात् यहाँ कोई तीसरा गुण नहीं आया। एक में दूसरे का गुण विलीन हुग्रा है। दूसरी बात यदि हम मान लें कि जलत्व एक तीसरा गुण है तो भी जड़ से अात्मा के पैदा होने की बात यहाँ सिद्ध नहीं होती। यह तो उनके कथनानुसार जड़ का जड़ में ही रूपान्तर हुअा। आवश्यकता है ऐसे उदाहरण की जहाँ जड़ से चैतन्य की सरिट होती हो। २--वैज्ञानिक भौतिकवादी प्रकृति में सर्वत्र गणात्मक परिवर्तन देखते व मानते हैं । मिट्टी से ऊख, चीनी, कन्द आदि गुणात्मक परिवर्तन होकर बनते हैं इसी प्रकार जड़ से मन या आत्मा। वैज्ञानिक भौतिकवाद का अर्थ है उससे किन्तु वही नहीं । यह उदाहरण भी स्थिति को स्पष्ट नहीं करता । ऊख के निर्माण में मिट्टी ही कारण हो, बीज, जल, हवा आदि कुछ भी न हो यह असंगत है। मूल द्रव्य परमाणु १. वैज्ञानिक भौतिकवाद पृ० १२४ । २. वैज्ञानिक भौतिकवाद पृ० १६६ । Jain Education International 2010_04 For Private & Personal Use Only ____www.jainelibrary.org :

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