Book Title: Jain Darshan aur Adhunik Vigyan
Author(s): Nagrajmuni
Publisher: Atmaram and Sons

View full book text
Previous | Next

Page 76
________________ परमाणुवाद ६७ पदार्थ से परे नहीं । शब्द तरंगों का विद्युत् प्रवाह के रूप में परिणत करना उन्हें श्रागे बढ़ाने का तीव्र प्रयत्न है और यही तो जैन शास्त्रों ने कहा था - तीव्र प्रयत्न को प्राप्त होकर शब्द लोकान्त तक पहुँच जाता है । प्रतिच्छाया और टेलीविजन जैन शास्त्रों में छाया का वर्णन करते हुए बताया गया है - विश्व के किसी भी मूर्त पदार्थ से प्रतिक्षरण तदाकार प्रतिच्छाया निकलती रहती है और वह पदार्थ के चारों ओर आगे बढ़ कर सारे विश्व में फैलती है । जहाँ उसे प्रभावित करने वाले पदार्थों का संयोग होता है वहाँ वह प्रभावित होती है । प्रभावित करने वाले पदार्थं जैसे - दर्पण, तेल, घृत, जल आदि । विज्ञान के क्षेत्र में जो टेलीविजन का आविष्कार हुआ है, लगता है वह इसी सिद्धान्त का उदाहरण है । वह एक देश में बोलने वाले व्यक्ति का चित्र समुद्रों पार दूसरे देश में व्यक्त करता है । हो सकता है, जैसे रेडियो यन्त्र गृहीत शब्दों को विद्युत् प्रवाह से आगे बढ़ा कर सहस्रों मील दूर ज्यों का त्यों प्रकट करता है उसी प्रकार टेलीविजन भी प्रसरणशील प्रतिच्छाया को ग्रहण कर उसे विशेष प्रयत्नों द्वारा प्रवाहित कर सहस्रों मील दूर ज्यों का त्यों व्यक्त करता है । उत्पत्ति, विनाश और स्थिति पदार्थ स्वभाव को व्यक्त करने के लिये 'उत्पत्ति, विनाश और स्थिति' का सिद्धान्त, जिसका वर्णन पहले किया जा चुका है, जैन दर्शन के अनुसार मूलभूत आधार है । उसका सारांश है— पदार्थ में प्रतिक्षण नये आकार की उत्पत्ति है, प्राचीन का विनाश है और पदार्थत्व की निश्चलता है । आधुनिक विज्ञान भी इस सिद्धान्त में पूर्ण सहमत है । शक्ति और पदार्थ को एक ही तत्त्व मान लेने के पश्चात् यह बात और भी स्पष्ट हो गई है । पदार्थ शक्ति के रूप में बदलता है, पर शक्ति भी नष्ट न होकर किसी प्रकार विशेष में बदल जाती है । 'थीसिस और एनर्जी' नामक पुस्तक में उसके लेखक एल० ए० कोल्डिंग लिखते हैं- - "शक्ति ग्रविनाशी और शाश्वत है, इसलिए जहाँ कहीं और जब कभी भी वह नष्ट होती देखी जाती है, वहाँ वह नष्ट न होकर एक परिवर्तन लेती हुई दूसरे रूप में प्रकट हो जाती है । पर उस परिवर्तन में उसकी मात्रा ज्यों की त्यों स्थित रहती है ।" तात्पर्य यह हुआ कि स्कन्ध टूटकर पदार्थ परमाणु रूप 1. Energy is imperishable and immortal and therefore wherever and whenever energy seems to vanish in performing certain mechanical and other works, it merely undergoes a transformation and reappears in a new form but the total quantity of energy still abides. Jain Education International 2010_04 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140 141 142 143 144 145 146 147 148 149 150 151 152 153 154