Book Title: Jain Darshan aur Adhunik Vigyan
Author(s): Nagrajmuni
Publisher: Atmaram and Sons

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Page 43
________________ जैन दर्शन और माधुनिक विज्ञान भेद हो जाते हैं । पाश्चर्य की बात तो यह है कि जैन दर्शन के अनुसार समान वर्ण, गंध वाले परमाणु में भी गुण तरतमता के कारण अनन्त भेद होते हैं । उदाहरणार्थविश्व में जितने श्याम परमाणु हैं वे सब समान अंशों से काले नहीं हैं । एक परमाणु एक गण (Degree) काला है तो दूसरा दो गुण । इस प्रकार कोई सौगुण काला है तो कोई सहस्र गुण, कोई असंख्यात् गुरग काला है तो कोई अनन्त गुण । यह वर्ण का उदाहरण हुआ। इसी प्रकार गंध, रस, स्पर्श आदि को लेकर एक से लेकर अनन्त गुणांशों का परमाण-परमाणु में अन्तर रहता है और वह गुणांशता विभिन्न परमाणुओं की अपनी अपनी शाश्वत् नहीं है । परमाणुगों में गुरणांश बदलते रहते हैं। यहाँ तक कि एक गुण रूक्ष परमाणु कालान्तर से अनन्त गुण रूक्ष हो सकता है और अनन्त गुण रूक्ष परमाणु एक गुण । परमाणु की इसी परिणमनशीलता को शास्त्रकारों ने षड् गुण हानिवृद्धि शब्द से कहा है । यह हानि-वृद्धि विस्रसा (स्वाभाविक) होती है। परमाणु प्रों से स्कन्ध (Molecule) क्यों व कैसे ? यह अत्यन्त महत्त्व का विषय है कि प्रत्येक परमाणु ईंट की तरह जब एक स्वतन्त्र इकाई हैं तो वे परस्पर मिल कर महाकाय स्कन्धों के रूप में कैसे परिणत हो जाते हैं ? मकान बनाते समय इंटों की परस्पर जोड़ के लिए चूना, सीमेन्ट आदि संयोजक द्रव्य की व किसी संयोजक व्यक्ति की आवश्यकता रहती है। किन्तु अनन्त ब्रह्माण्ड में तो स्कन्धों का संघटन विघटन प्रतिक्षण स्वतः भी होता रहता है । निरभ्र आकाश थोड़े से समय में बादलों से भर जाता है । वहाँ बादल रूप स्कन्धों का जमघट लग जाता है और कुछ ही क्षणों में बिखरता भी देखा जाता है। इस प्रकार से स्वाभाविक स्कन्धों के निर्माण में हेतु क्या है ? मनुष्य के हाथ में जो भी स्वरूप पदार्थ प्राता है जिसे मनुष्य मूल या प्राकृतिक संस्थान समझता है, वह सब परमाणुओं का समवायी परिणाम है। जैन दर्शनकारों ने स्कन्ध-निर्माण की एक समुचित रासायनिक व्यवस्था दी है । वह गुर' यह है (१) परमाणु की स्कन्ध रूप परिणति में परमाणुगों की स्निग्धता और रूक्षता ही एक मात्र हेतु है। १. द्वयधिकादि गुणत्वे सदृशानाम् । सदृशाननां स्निग्धैः सह स्निग्धानां रूक्षः सह रूक्षाणां च परमाणूनामेकत्र द्विगुण स्निग्धत्वमन्यत्र चतुगुण स्निग्धत्व मिति रूपे द्वयधिकादि गुणत्वे सति प्रेकीभावो भवति न तु समानगुणनामेकाधिकगणानाञ्च । -श्री जैन सिद्धान्त दीपिका प्र० १ । Jain Education International 2010_04 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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