Book Title: Jain Darshan aur Adhunik Vigyan
Author(s): Nagrajmuni
Publisher: Atmaram and Sons

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Page 67
________________ ५८ जैन दर्शन और आधुनिक विज्ञान समन्वय और समीक्षा पिछले प्रकरणों में दर्शन और विज्ञान के प्रामाणिक उद्धरणों के साथ परमाणवाद का सुविस्तृत विवेचन किया गया । सर्वसाधारण के लिए दोनों पक्षों के सारांश को हृदयगंम कर उसे समीक्षापूर्ण दृष्टि से देख लेना सहज नहीं होगा, इसलिए प्रस्तुत प्रकरण में दर्शन और विज्ञान के महत्त्वपूर्ण प्रसंगों को संक्षेप में समीक्षात्मक दृष्टि से रखा जा रहा है। परमाणु की परिभाषा करते हुए भगवान श्री महावीर ने बताया–परमाणु' पुद्गल अविभाज्य, अच्छेद्य, अभेद्य, अदाह्य व अग्राह्य है । किसी भी उपाय, उपचार या उपाधि से उसका भाग नहीं हो सकता । वज्रपटल से भी उसका भाग या विभाग नहीं हो सकता। किसी तीक्ष्णति-तीक्ष्ण शस्त्र से भी उसका क्रमण या भाग नहीं हो सकता । वह तलवार की धार या इससे भी तीक्ष्ण शस्त्र की धार पर रह सकता है। तलवार या क्षुरकी तीक्ष्ण धार पर रहे हुए परमाण-पुद्गल का छेदन-भेदन नहीं हो सकता । वह अग्निकाय में प्रवेश कर जलता नहीं है । पुष्करसंवर्त महामेघ में प्रवेश कर आर्द्र नहीं होता है । गंगा महानदी के प्रतिश्रोत में शीघ्रता से प्रवेश कर नष्ट नहीं होता है। उदकावर्त या उदकबिन्दु में आश्रय लेकर विलुप्त नहीं होता है । परमाणु पुद्गल अनर्ध है, अमध्य है, अप्रदेशी है । सार्ध नहीं है, समध्य नहीं है, सप्रदेशी नहीं है । परमाण के न लम्बाई है, न चौड़ाई है, न गहराई है। यदि वह है तो इकाई रूप है। डेमोक्रेटस कहता है- 'परमाणु अच्छेद्य, अभेद्य और अविनाशी हैं । वे पूर्ण है और ताजे (नये) हैं, जैसे कि संसार की आदि में थे।' पर डेमोक्रेट्स का तथाकथित अच्छेद्य और अभेद्य परमाणु अाज टूट गया है । जैन दर्शन का परमाणु अखण्ड था, है और रहेगा। जैन शास्त्रों के अनुसार वह इन्द्रियग्राही व प्रयोग का विषय हो ही नहीं सकता। उसकी सूक्ष्मता के विषय में जैसा कि बताया गया है-'परमाणु में मनुष्य कृत कोई क्रिया और गति नहीं हो सकती। मनुष्य तो केवल अनन्त प्रदेशी सूक्ष्म १. भगवती श क ५ उद्देश्य ७ । २. परमाणु पोग्गलेणं भन्ते ! किं सअड्ढे, समज्झे, सपएसे, उदाहु, अणड्ढे, अमझे, अपएसे ? गोयमा ! अणड्ढे, अमज्झे अपएसे, नो सअड्ढे, नो समज्भे, नो सपएसे । -भगवती शतक ५ उद्देश ७ । Jain Education International 2010_04 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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