Book Title: Jain Darshan aur Adhunik Vigyan
Author(s): Nagrajmuni
Publisher: Atmaram and Sons

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Page 28
________________ स्याद्वाद और सापेक्षवाद १६ जितने दार्शनिक हैं उतने ही वैज्ञानिक भी । वह केवल कल्पनाओं का पुलिन्दा नहीं किन्तु जीवन का व्यावहारिक मार्ग है । इसीलिए तो आचार्यों ने कहा है – “उस जगद्गुरु स्याद्वाद महासिद्धान्त को नमस्कार हो जिसके बिना लोक व्यवहार भी नहीं चल सकता ।" सहस्रों वर्ष पूर्व और श्राज स्याद्वाद और सापेक्षवाद के कुछ प्रसंग ऐसे हैं जो अनायास गंगा यमुना की तरह एकीभूत होकर बहते हैं । अन्तर केवल इतना ही है कि स्याद्वाद के क्षेत्र में वे आज से सहस्रों वर्ष पूर्व एक व्यवस्थित विधि में रख दिये गये हैं और सापेक्षवाद के क्षेत्र में वे आज चिन्तन की स्थिति पर क्रमिक विकास पा रहे हैं । उदाहरणार्थ -- सत्यासत्य की मीमांसा करते हुए रेखागणित व माप-तोल के विषय में सापेक्षवाद के अनुसार माना गया है - " रेखागणित के अनुसार रेखा वह है जिसमें लम्बाई हो पर चौड़ाई या मुटाई न हो । बिन्दु में मुटाई भी नहीं होती । दुनिया में ऐसी रेखा नहीं देखी गई जिसमें चौड़ाई या मुटाई न हो । वह उपेक्षणीय या नगण्य दीख सकती है पर वह है ही नहीं, नहीं कह सकते । धरातल की भी यही बात है । भले ही हमारा दिमाग सिर्फ लम्बाई चौड़ाई को ही ध्यान में लाये किन्तु सिर्फ उन्हीं दो परिमाणों वाली किसी चीज को तो प्रकृति ने नहीं बनाया है । सरल रेखा कागज पर खींची देखकर हम समझ लेते हैं कि इसकी सरलता बिल्कुल स्वाभाविक बात है । सरल से सरल रेखा को भी यदि अधिक बारीक पैमाने से जाँचा जाये तो वह पूरी सरल नहीं उतर सकती । नाप का भी यही हाल है । लम्बाई, चौड़ाई, मोटाई के द्वारा हम जिस बिन्दु, रेखा, धरातल आदि की व्याख्या करते हैं, उन्हें हम उनकी वास्तविक सापेक्ष स्थिति में न लेकर एक आदर्श मान के रूप में लेते हैं । लम्बाई नापने के लिए कोई स्थिर आदर्श मानदण्ड नहीं मिल सकता । ठोस से ठोस धातु का ठीक से नापा हुआ मानदण्ड लोहे या पीतल का तार या छड़ भी एक दिशा से दूसरी दिशा में घूमने मात्र से अपनी लम्बाई का करोड़वाँ हिस्सा घट या बढ़ जाता है। एक ही जमीन की भिन्न भिन्न समय में या भिन्न भिन्न आदमियों द्वारा की गई जितनी नापियाँ होती हैं वे सूक्ष्मता में जाने पर एक सी नहीं उतरतीं । शीशे या प्लाटिनम का खूब सावधानी से निशान लगाया जाए, जरीब से नापा जाए, तो भी नापियों में कुछ न कुछ अन्तर रह ही जाता १. जेरण विरणावि लोगस्स ववहारो सव्वहा न निव्वss | तस्स भुक्क गुरु णमो अणेगन्तवायस्स । Jain Education International 2010_04 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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