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जैनदर्शन : चिन्तन - अनुचिन्तन
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सिद्धि नहीं होती । हां, कोई ऐसा कह सकते हैं कि सर्वज्ञ के बिना धर्मोपदेश संभव नहीं ।' लेकिन उपदेश देने का कारण सर्वज्ञता नहीं बल्कि सम्प्रदाय विशेष के विस्तार का व्यामोह है । फिर उपदेश या तो व्यामोह पूर्वक होगा। या सम्यक् ज्ञान पूर्वक । यदि प्रथम कोटि का उपदेश रहा तो उसका को मूल्य नहीं, जैसे स्वप्रचारी व्यक्ति की वक्तृता का कोई अर्थ नहीं है । किन्तु यदि उपदेश सम्यक् ज्ञान पूर्वक मानें तो जैसा मनु ने वेदज्ञान के आधार पर दिया है, तो ठीक है लेकिन बुद्धादि वैसा उपदेश नहीं दे सकते क्योंकि वे वेदज्ञान पूर्वक उपदेश नहीं करते। इसका प्रमाण है कि यदि वे वेदज्ञान पूर्वक उपदेश करते तो लोग उनके उपदेशों पर उसी प्रकार आचरण करते जिस प्रकार मनु के उपदेशों का करते हैं । अतः उन लोगों का उपदेश व्यामोह पूर्वक ही हुआ 12 मीमांसकों के उपर्युक्त आरोपों के उत्तर में जैन दार्शनिकों का कहना है कि अर्थापत्ति के द्वारा भी सर्वज्ञ का अभाव सिद्ध नहीं हो सकता' क्योंकि षड् प्रमाणों के द्वारा जाने गये अर्थों में ही अर्थापत्ति की प्रतीति होती है । वेद की प्रमाणता सर्वज्ञ होने पर ही सिद्ध होगी क्योंकि गुणवान वक्ता के अभाव में वचन में प्रमाणता नहीं देखी जाती ।
अभाव
मीमांसकों का कहना है कि अभाव से तो केवल अभाव ही सिद्ध होगा । फिर भी यदि हम मान लें कि सर्वज्ञ है तो वह समस्त काल की चीजों को अपने-अपने रूप से जानेगा या वर्तमान रूप से ? यदि अपने-अपने रूप से जानें (भूत को भूत, भविष्यत् को भविष्यत्) तो वर्तमान में प्रत्यक्ष हुआ नहीं कहा जाएगा, क्योंकि वस्तु का विषय वर्तमान नहीं है । जो वस्तु का विषय वर्तमान नहीं है वह प्रत्यक्ष नहीं बल्कि स्मरण, कल्पना आदि होगा । यदि वह वर्तमान रूप से सबको जानता है तो उसका ज्ञान भ्रान्ति हो जाएगा क्योंकि अन्यथा स्थित रूप से पदार्थ को मानेगा यानि भूत और भविष्यत् को वर्तमान रूप से जानेगा, जैसे द्विचन्द्रमा का ज्ञान होता है ।"
फिर " यहां पर सत् है"- ' - इस वस्तु के ज्ञान में वस्तु सत्ता की तरह
से प्रारभाव या प्रध्वंसाभाव प्रतिभासित होते हैं या नहीं ? यदि प्रतिभासित
१. तत्त्व-संग्रह का ३२२३,३२२४,३२२८ ।
२. प्रमेय कमल मार्त्तण्ड पृ० २५० ।
३. तत्त्व - संग्रह - का. पृ० ८४९; आप्तपरीक्षा - का. १०२; स्याद्वाद रत्नाकर
पृ० ३८८, प्रमेय कमल मार्त्तण्ड २६५ ।
४. न्याय कुमुदचन्द्र भाग - १, पृ० ८८ ५. न्याय कुमुदचन्द्र भाग - १, पृ० ८८
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प्रमेय कमल मार्त्तण्ड पृ० २५० । प्रमेय कमल मार्त्तण्ड पृ० २५० ।
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