Book Title: Jain Darshan Chintan Anuchintan
Author(s): Ramjee Singh
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 183
________________ जैन विश्वभारती बनाम जैन विश्वभारती जिस समय आज से २२ वर्ष पूर्व आचार्य तुलसी ने लाडनूं जैसे एक छोटी तहसील में "जैन विश्वभारती" की स्थापना की थी, उस समय उनकी भी कल्पना नहीं थी कि यह "जैन-भारती" एक दिन "विश्वभारती" बन जाएगी । आचार्य श्री के शब्दों में शायद यही इसकी नियति थी।" इसलिए यह असम्भव सम्भव हो सका और उनका अकल्पित स्वप्न भी साकार हुआ। गंगोत्री में गंगा को देखकर कौन कल्पना करेगा कि गंगासागर पहुंचते-पहुंचते गंगा का यह विराट रूप हो जायगा ? जिस प्रकार नदी की नियति है कि वह समुद्र की ओर बढ़ती जाती है, उसी प्रकार छोटी सी जैन विश्वभारती की भी यही नियति थी कि उसे वर्तमान नालन्दा और तक्षशिला बनने का दायित्व लेना होगा "यथा नदीनां बहवो अम्बुवेगाः। समुद्रमेवाभिमुखा द्रवन्ति ॥ जैन विश्वभारती का विश्वविद्यालयीय आयाम वस्तुतः इसका विराट रूप है। मान्य विश्वविद्यालय भले वैधानिक दृष्टि से पृथक और स्वतंत्र संस्था के रूप में हो-लेकिन वास्तविक और भावनात्मक रूप से दोनों एक ही परिवार हैं । अत: दोनों में पार्थक्य का दर्शन ही दोषमूलक है । दूसरी दृष्टि से भी विचार करें तो "जैन विश्वभारती" मात-संस्था है और "जैन विश्वभारती मान्य विश्वविद्यालय" इसका मानस-पुत्र है । अतः विश्वविद्यालय की प्रगति और समृद्धि मातृ-संस्था के लिए गौरवमय सुख का विषय होगा। शास्त्र में कहा ही जाता है--"पिता पुत्र से पराजय चाहता है, गुरु शिष्य से पराजय चाहता है।" ___ "पुत्रात् इच्छेत पराजयम् । शिष्यात् इच्छेत पराजयम् ।" जिस विश्वविद्यालय-शिशु को जैन विश्वभारती माता ने जन्म दिया उसका लालन-पालन, उसका वैभव और उसका अक्षय सुख भी उसका अभीष्ट है । शिशु-संस्था भी माता के प्रति अपना आदर एवं कर्तव्यबोध यदि विस्मृत करेगा तो यह कृतघ्नता होगी। बात रही माता के व्यवहार की। माता प्रतिदान की आकांक्षा नहीं रखती, वह तो केवल बलिदान और आत्म-बलिदान ही जानती है। संतान अबोध होकर कभी मां की उपेक्षा कर भी सकती है लेकिन मां तो कुछ अन्यथा सोच भी नहीं सकती है-- Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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