Book Title: Jain Darshan Chintan Anuchintan
Author(s): Ramjee Singh
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 187
________________ १७८ जैनदर्शन : चिन्तन-अमुचिन्तन प्रकार विश्वविद्यालय को सार्वभौम अहिंसा और जैनविद्या के जागतिक प्रचारप्रसार का भी गुरु गंभीर भार लेना ही होगा, जिसमें अणुविभा आदि संस्थाओं का सहयोग अपेक्षित है । विगत वर्षों में जैन विश्वभारती एवं अणुविभा के संयुक्त तत्वावधान में जो दो अन्तराष्ट्रीय सम्मेलन हुए, उस दिशा में सुव्यवस्थित कार्य करना बाकी है। इसलिये विश्वविद्यालय ने अनेकांत इंटरनेशनल नामक एक विदेश-सम्पर्क विभाग का भी गठन किया है। आगमअध्ययन के अनन्त ज्ञान के प्रकाशन एवं अनुवाद के लिये "प्रकाशन एवं अनुवाद प्रभाग" भी बनाया जा चुका है। विश्वविद्यालय जैनविद्या को व्यापक एवं लोकप्रिय बनाने के लिये तीन माह का एक समेकित प्रमाण-पत्र पाठ्यक्रम भी चाल करेगा। जिसमें जीवन-विज्ञान के अध्ययन के साथ-साथ किसी एक उद्योग का शिक्षण, संस्कार निर्माण एवं समाज सेवा की तकनीक आदि सिखाने के प्रयत्न होंगे। इस दृष्टि से कम्प्यूटर केन्द्र में भी कप्म्यूटर पाठ्यक्रम चलाना अधिक उपयोगी होगा। अभी तो विश्वविद्यालय का श्री गणेश ही हुआ है । मात्र चार विभाग हैं । लेकिन यही इसका पूर्णविराम नहीं समझना चाहिये । विश्व में नये-नये ज्ञान-विज्ञान सामने आ रहे हैं । ऊर्जा का अपार संकट सामने है। अत: ऊर्जा के नये स्त्रोत के रूप में सौरऊर्जा की खोज राजस्थान के विशाल मरू प्रदेश में बड़ा अनुकूल एवं राष्ट्र उपयोगी होगा। फिर पर्यावरण शास्त्र भी आज का सबसे सार्थक एवं उपयोगी विज्ञान है। उसके अध्ययन एवं शोध के विषय में सोचना चाहिये । उद्योग एवं व्यापार के क्षेत्र में "व्यापार-प्रबन्धन" का ज्ञान भी अत्यन्त आवश्यक है । शिक्षक-प्रशिक्षण पाठ्यक्रम की तो आवश्यकता होगी ही। इस प्रकार जैन विश्वभारती के सामने अनन्त संभावनायें हैं और उसके लिये इसे समर्थ बनाना मातृ-संस्था का विशेष दायित्व है। माता शिशु को मात्र जन्म देकर असहाय छोड़ दे तो शिशु बच नहीं सकता। माता जिस प्रकार समर्थ होने तक अपने शिशु का प्राणपन से पालन-पोषण करती है और जब तक बचती है उसके लिये आर्शीवाद एवं शुभैषणायें देती रहती है, उसी प्रकार मातृ-संस्था को भी विश्वविद्यालय-शिशु के लिये संकल्प करना होगा। विश्वविद्यालय की मान्यता आचार्यश्री के विराट् व्यक्तित्व के प्रभाव से हुई है। वर्ना अभी तो विश्वविद्यालय का स्वरूप भी नहीं खड़ा हो पाया है । मातृ-संस्था का ही समस्त वैभव इसका वैभव माना गया और आचार्यश्री का इससे जुड़ाव इसकी सबसे बड़ी सम्पत्ति । इसीलिये विश्वविद्यालय अनुदान आयोग एवं भारत सरकार से इतनी जल्दी स्वीकृति मिल पायी। ___ यह न केवल तेरापंथ समाज बल्कि सम्पूर्ण समाज के लिये एक अलभ्य एवं ऐतिहासिक सांस्कृतिक सुयोग है जिस पर भारतीय सांस्कृतिक मनीषा को Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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